आज के समय में शायद ही कोई ऐसा हो जो फिल्में देखना न पसन्द करता हो ,किसी को फोन में मूवीज़ देखना पसंद है तो किसी को एलसीडी पर ,कोई अकेले फिल्में देखता है तो कोई सबके साथ मूवीज़ देखना पसंद करता है ,मगर पसंद सभी को हैं फिल्म्स देखना । पर हमनें कभी गौर किया है क्या कि मनोरंजन के नाम पर हमें क्या क्या दिखाया जा रहा है या हम क्या -क्या देख रहे हैं ?
राजा हरिश्चन्द्र, कलिया मर्दन ,रामपुर का लक्ष्मण और सीता और गीता सेे लेेेेेेेेेकर भारतीय ़फिल्म जगत की सौ वर्षों की यात्रा में कमीने ,कुत्ते और हरामखोर जैसी पिक्चर्स भी आसानी से अपना मक़ाम तलाश ले गयीं हैं।
और तलाश भी कैसे न लें ,हमारे मस्तिष्क की सरंचना ही ऐसी हैं कि हम लोंगों को हरामखोर जैसी फिल्में आसानी से समझ भी आती हैं और हमारा दिमाग ऐसी मूवीज़ की तरफ़ आकर्षित भी होता है।
हमारे देश में जहाँ शिक्षक को भगवान का दर्ज़ा प्राप्त होता है और शिक्षक को अपशब्द बोलने पर घर में कान खिंचाई होती है , उसी देश के सिनेमाघरों में एक शिक्षक को केन्द्र में रखकर बनायीं गयी हरामखोर जैसी फिल्म रिलीज़ की जातीं है और लोग देखने भी जातें हैं ।
कमीनें , छिछोरे , Rascals आदि शीर्षक वाली मूवीज़ जो पूरे शोर शराबे के साथ सिनेमाघर में लगायीं जाती हैं , दरअसल हमारे समाज में आज भी इन शब्दों को प्रतिष्ठित स्थान नहीं प्राप्त है , और ये शब्द अधिकतर आवारा लोगों के लिए प्रयुक्त किया जाता है ( अपवाद – दोस्ती ) ।
हांलाकि ऐसी मूवीज़ भी आज का सिने जगत दें रहा है जिसमें बस शीर्षक ही सादगी पूर्ण हैं बाकी फिल्म में गालियों के सिवा कुछ नहीं होता खास ।
साहब, बीवी और गैंगस्टर , बदलापुर, एवं गालियों और गोलियों के वेब शो मिर्जापुर को कैसे न याद किया जाए ।
जिस को गालियॉं नहीं आती मुझे लगता है वो मिर्जापुर देखकर गालियों पर एक पूरी किताब लिख सकताहै ,और उसके लिए ज्यादा मेहनत भी नही करनी क्योंकि इस तरह की आपत्तिजनक व भड़काऊ समाग्री आज ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर दाल – चावल के जैसे परोसी जातीहै और जिसकी पहुंच बच्चों तक भी हैं । ओटीटी पर तो आजकल कुछ भी रिलीज़ कर दिया जाता है ,कुछ रोक तो लगी है मगर ,अब भी उत्तेजक और भड़काऊ दृश्यों पर सेंसरशिप की ज्यादा फिक्र नहीं है।
बाॅलीवुड जो कभी मनोरंजन जगत था आज सिर्फ उद्योग जगत हीं लगता है जहाँ मौजूद अधिकतर एक्टर ,एक्ट्रेसेस ,निर्माता ,निर्देशक पैसा कमाने के लिए ही फिल्में बनातें हैं ।
अगर उनसें पूछा जाता है की आप बाबूमोशाय बंदूकबाज
जैसी फिल्में क्यों बनातें हैं तो उनका जवाब होता है कि हमारे दर्शक यहीं देखना चाहतें हैं ।मैं सोच में पढ़ जातीं हूंँ कि इनका दर्शक वर्ग क्या विदेशों में हैं। क्योंकि अपने भारत में तो कुछ ही लोग ऐसे होंगें ,जिन्हें गाली – गलौच ,अभद्रता से भरे दृश्य और द्वीअर्थी संवाद के साथ अश्लिल इशारे अच्छें लगतें हों !
आने वाले वक्त में हम नहीं कह सकते कि फिल्म्स में गालियॉं होंगी या गालियों में फिल्में होंगी मगर इतना तो तय है कि बच्चें जरुर समय से पहले ही समझदार हो जाएगें ।
हम इस तरह की मूवीज़ की ब्राण्ड वैल्यू बढ़ातें जाएंगें और ये फिल्में हमारी वैल्यू गिराती जाएंगी ।
Note – मेरी पोस्ट से आप मेरे बारे में राय बनाने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं क्योंकी मैं महसूस करके भी व समीक्षाएँ पढ़कर भी लिख सकती हूँ।
मैं आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूं अवंतिका… बोलिवोड ने हमारे समाज को इतना दूषित कर दिया है.. कि व्यक्ति की मनोस्थिति के साथ साथ उसके विचार एवं आदर्श