जब नारद मुनि को भी होना पड़ा रिश्वतखोरी का शिकार….

 आज के समय में किसी भी काम के लिए वो चाहे जॉब हो , पढ़ाई हो या खुद का हक़ लेना हो इन सब में सबसे पहले रिश्वतदारी का सौदा होता है तब काम की बारी आती है। टेबल के ऊपर से जहाँ काम की अर्जी बढ़ाई जाती है तो वहीं नीचे से गुलाबी , पीले , बैगनी रंग के गाँधी जी भी सरकाए जातें हैं। बड़ा आदमी तो चलो रिश्वत का बंदोबस्त कर भी लेता है लेकिन आम आदमी कैसे सहन करता है ये सब ?उफ़ ये तो भगवान् ही जाने ….! नहीं भगवान भी तो नहीं जानते थे इसे तभी तो धरती पर आकर वो भी घूसखोरी का शिकार हो गयें। जी हाँ आज जो किस्सा मैं आपको सुनाने जा रही हूँ वो है महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की रचना भोलाराम का जीव। जो कि नारद के धरती पर रिश्वतखोरों के हाथों में फसने की कहानी है। रिश्वत के लिए पैसे ना होने पर क्या करना पड़ता है उन्हें ये पढ़ना काफी मजेदार रहेगा ।

ऐसा कभी नहीं हुआ था….

धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफारिश के आधार पर स्वर्ग या नर्क में निवास स्थान अलॉट करते आ रहे थें।मगर ऐसा कभी नहीं हुआ।                       

सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट , रजिस्टर पर रजिस्टर देख रहें थें । गलती पकड़ में नहीं आ रही थी।आखिर उन्होंने खोजकर रजिस्टर इतने जोर से बंद किया कि मक्खी चपेट में आ गई। उसे निकालते हुए वे बोलें ,” महाराज, रिकॉर्ड सब ठीक है । भोलाराम के जीव ने पाँच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना भी हुआ , पर यहाँ अभी तक नहीं पंहुचा।”

धर्मराज ने पूछा , और वह दूत कहाँ है?               महाराज वह भी लापता है। इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बड़ा बदहवाश वहाँ आया । उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम , परेशानी और भय के कारण और भी विकृत हो गया था। उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठें, “अरे तू कहाँ रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहाँ है?”

यमदूत हाथ जोड़कर बोला ,”दयानिधान , मैं कैसे बतलाऊ कि क्या हो गया ? आजतक मैंने धोखा नहीं खाया था, पर भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया ।पाँच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम की देह को त्यागा , तब मैंने उसे पकड़ा और इस लोक की यात्रा आरम्भ की। नगर के बाहर ज्योंही मैं उसे लेकर एक तीव्र वायु तरंग पर सवार हुआ त्योंहि वह मेरे चंगुल से छूटकर न जाने कहाँ गायब हो गया। इन पाँच दिनों में मैंने सारा ब्रहाण्ड छान डाला , पर उसका कहीं पता नहीं चला।

धर्मराज क्रोध से बोले ,”मूर्ख ! जीवों को लाते-लाते बूढ़ा हो गया फिर भी एक मामूली बूढ़े आदमी के जीव से चकमा खा गया ।”

दूत ने सर झुकाकर कहा ,” महाराज मेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी। मेरे इन हाथों से अच्छे-अच्छे वकील नहीं छूटे, इस बार तो इंद्रजाल हो गया ।”

चित्रगुप्त ने कहा ,” महाराज आजकल प्रथ्वी पर इस प्रकार का व्यापार बहुत चला है । लोग दोस्तों को कुछ चीज़ भेजते हैं रास्ते में ही रेलवे वाले उडा लेते हैं, राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ाकर बंद कर देते हैं। कहीं भोलाराम के जीव को भी तो किसी विरोधी ने मरने के बाद दुर्गति करने के लिए नहीं उड़ा दिया?

धर्मराज ने व्यंग से चित्रगुप्त की ओर  घूमते हुए कहा”, तुम्हारी भी रिटायर होने की उम्र आ गई है। भला  भोलाराम जैसे दीन आदमी से किसी को क्या लेना देना?”

इसी समय कहीं से घुमते घामते नारद मुनि वहा आ गये।

धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले, “क्यों धर्मराज, कैसे चिन्तित बैठे हैं? क्या नरक में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई ?”

धर्मराज ने कहा, “वह समस्या तो कभी की हल हो गई। नरक में पिछले सालों में बड़े गुणी कारीगर आ गए हैं। कई इमारतों के ठेकेदार हैं, जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाईं। बड़े-बड़े इंजीनियर भी आ गए हैं, जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया।ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मज़दूरों की हाज़िरी भरकर पैसा हड़पा, जो कभी काम पर गए ही नहीं। इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं। वह समस्या तो हल हो गई, पर एक बड़ी विकट उलझन आ गई है। भोलाराम नाम के एक आदमी की पाँच दिन पहले मृत्यु हुई। उसके जीव को यह दूत यहाँ ला रहा था, कि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया। इसने सारा ब्रह्मांड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला। अगर ऐसा होने लगा, तो पाप-पुण्य का भेद ही मिट जाएगा।

नारद ने पूछा, “उस पर इन्कमटैक्स तो बकाया नहीं था ? हो सकता है, उन लोगों ने रोक लिया हो !”

चित्रगुप्त ने कहा, “इन्कम होती तो टैक्स होता ।… भुखमरा था । “

नारद बोले, “मामला बड़ा दिलचस्प है। अच्छा मुझे उसका नाम, पता तो बताओ। मैं पृथ्वी पर जाता हूँ।”

चित्रगुप्त ने रजिस्टर देखकर बताया, “भोलाराम नाम था उसका। जबलपुर शहर में घमापुर मोहल्ले में नाले के किनारे एक-डेढ़ कमरे के टूटे-फूटे मकान में वह परिवार समेत रहता था। उसकी एक स्त्री थी, दो लडके और एक लड़की। उम्र लगभग साठ साल । सरकारी नौकर था। पाँच साल पहले रिटायर हो गया था। मकान का किराया, उसने एक साल से नहीं दिया, इसलिए मकान-मालिक उसे निकालना चाहता था। इतने में भोलाराम ने संसार ही छोड़ दिया। आज पाँचवाँ दिन है। बहुत सम्भव है कि अगर मकान मालिक वास्तविक मकान-मालिक है, तो उसने भोलाराम के मरते ही, उसके परिवार को निकाल दिया। इसलिए आपको परिवार की तलाश में काफ़ी घूमना पड़ेगा।”

माँ-बेटी के सम्मिलित क्रन्दन से ही नारद भोलाराम का मकान पहचान गए।द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज़ लगाई, “नारायण ! नारायण !” लड़की ने देखकर कहा, आगे आओ महाराज !”

नारद ने कहा, “मुझे भिक्षा नहीं चाहिए; मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछताछ करनी है।

अपनी माँ को जरा बाहर भेजो, बेटी!”

भोलाराम की पत्नी बाहर आई। नारद ने कहा, “माता, भोलाराम को क्या बीमारी थी ?” क्या बताऊँ ? ग़रीबी की बीमारी थी। पाँच साल हो गए, पेंशन पर बैठे, पर पेंशन अभी तक नहीं मिली। हर दस-पन्द्रह दिन में एक दरख्वास्त देते थे, पर वहाँ से या तो जवाब आता ही नहीं था और आता, तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले पर विचार हो रहा है। इन पाँच सालों में सब गहने बेचकर हम लोग खा गए। फिर बरतन बिके। अब कुछ नहीं बचा था। फाके होने लगे थे। चिन्ता में घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड़ दिया।

नारद ने कहा, “क्या करोगी माँ ? उनकी इतनी ही उम्र थी।”

“ऐसा तो मत कहो, महाराज! उम्र तो बहुत थी। पचास-साठ रुपया महीना पेंशन मिलती

तो कुछ और काम कहीं करके गुज़ारा हो जाता। पर क्या करें? पाँच साल नौकरी से बैठे हो गए, और अभी तक एक कौड़ी नहीं मिली।”

दुख की कथा सुनने की फुरसत नारद को थी नहीं। वे अपने मुद्दे पर आए, “माँ, यह तो बताओ कि यहाँ किसी से उनका विशेष प्रेम था, जिसमें उनका जी लगा हो ?’

पत्नी बोली, “लगाव तो महाराज, बाल-बच्चों से ही होता है।

“नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है। मेरा मतलब है, किसी स्त्री… ‘

स्त्री ने गुर्राकर नारद की ओर देखा । बोली, “मत बको महाराज ! तुम साधु हो, उचक्के नहीं हो। ज़िन्दगी-भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री को आँख उठाकर नहीं देखा।”

नारद हँसकर बोले, “हाँ, तुम्हारा यह सोचना ठीक ही है। यही हर अच्छी गृहस्थी का आधार है। अच्छा, माता मैं चला ।’

स्त्री ने कहा, “महाराज, आप तो साधु हैं, सिद्ध पुरुष हैं। कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उनकी रुकी हुई पेंशन मिल जाए। इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए।”

नारद को दया आ गई थी। वे कहने लगे, “साधुओं की बात कौन मानता है ? मेरा यहाँ कोई मठ तो है नहीं। फिर भी मैं सरकारी दफ़्तर में जाऊँगा और कोशिश करूँगा।” 

                         To be continued….

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