ब्राउन साहब की कोठी’ का राज

पिछली बार मैंने आपको महान फिल्म निर्देशक सत्यजित रे की लिखित कहानी” फ्रिंस ” सुनाई थी। आज उन्हीं के द्वारा रचित एक दूसरी कहानी भी आप लोगों को सुनाने जा रही हूँ। यह कहानी भी उतनी ही रोमांचक, डरावनी , और भयानक हैं जितनी की पिछली कहानी फ्रीन्स थी। कैसे तीन युवा भूत देखने के लिए एक बंगलो में जाते हैं और फिर वहाँ उनके साथ क्या होता हैं इसी के इर्दगिर्द लिखी गई कहानी आपको रोंगटे खड़े करने पर मजबूर कर देगी।

जब से ब्राउन साहब की डायरी मिली थी, बंगलौर जाने का मौका ढूँढ रहा था।
और वह मौका अप्रत्याशित रूप में सामने आ गया। बालीगंज स्कूल के वार्षिक
रि-यूनियन के अवसर पर अपने पुराने सहपाठी अनीकेन्द्र भौमिक से मेरी मुलाकात हो गयी। अनीक ने बताया कि वह बंगलौर में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइन्स में नौकरी करता है। ‘एक बार मेरे यहाँ घूमने-फिरने आओ न। द बेस्ट प्लेस इन इंडिया। मेरे घर में एक अतिरिक्त कमरा भी है। आओगे ?’
स्कूल में अनीक मेरा गहरा दोस्त था। उसके  बाद जैसा होता है, वही हुआ।
हम अलग-अलग कॉलेज में दाखिल हुए। इसके अलावा वह विज्ञान का विद्यार्थी था
और मैं कला का। दोनों ने विपरीत रास्ते पर चलना शुरू किया। बीच में वह विलायत
चला गया। नतीजा यह हुआ कि हम दोनों की दोस्ती में भी बहुत-कुछ बाधा पड़
गई। आज लगभग बारह साल के बाद उससे मुलाकात हुई। मैंने कहा, “आ सकता
हूँ। कौन-सा मौसम सबसे अच्छा रहता है?”
‘एनी टाइम । बंगलौर में गरमी नहीं पड़ती। यही वजह है कि साहबों को वह
जगह इतनी प्रिय थी। जब मर्जी हो, चले आना । तब हाँ, सात दिन पहले सूचना
भेज दो तो अच्छा रहे ।’
खैर, अब हो सकता है, ब्राउन साहब की कोठी देखने का सुयोग प्राप्त हो
जाए। लेकिन इसके पहले यह जरूरी है कि साहब की डायरी के बारे में बता दें।
मुझे आप एक तरह से पुरानी पुस्तकों का कीड़ा कह सकते हैं। बैंक में नौकरी
कर जितना कमाता हूँ उसका लगभग आधा पैसा पुरानी पुस्तकों की खरीद में चला
जाता है। भ्रमण की कहानी, शिकार की कहानी, इतिहास, आत्मकथा, डायरी इत्यादि बहुत सारी पुस्तकें पाँच वर्षों के दरमियान मेरे पास जमा हो गई हैं। कीड़ों के द्वारा काटे हुए पन्ने, बुढ़ापे के कारण जीर्ण हो गए पन्ने, सेंत के कारण रंगहीन हो गए
पन्ने-इन सब से मैं अत्यन्त परिचित हूँ और ये सब मेरी प्यारी वस्तुएँ हैं। और
पुरानी पुस्तकों की गंध ! पहली बरसात के बाद भीगी मिट्टी से जो सोंधी गंध आती है उसकी और पुरानी पुस्तकों के पृष्ठों की गंध-इन दोनों का कोई मुकाबला नहीं।
अगरु, कस्तूरी, गुलाब, हुस्नहिना-यहाँ तक कि फ्रांस की श्रेष्ठ से श्रेष्ठ परफ्युमरी
के सुवास को इन दोनों के सामने हार माननी पड़ेगी।
पुरानी किताबें खरीदने का मुझे नशा है और पुरानी किताबें खरीदने के सिलसिले
में ही ब्राउन साहब की डायरी मिली थी। इतना बता दूं कि यह छपी हुई डायरी
नहीं है, हालाँकि छपी डायरी भी मेरे पास है। वह डायरी सरपत की कलम से लिखी
हुई असली डायरी है। लाल चमड़े से मढ़ी हुई साढ़े तीन सौ पन्ने की रूलदार कापी।
साढ़े छह इंच बाइ साढ़े चार इंच। जिल्द के चारों ओर सोने के पानी की नक्काशी
किया हुआ बार्डर है और बीच में सुनहरे छपे अक्षरों में साहब का नाम लिखा हुआ
है-जॉन मिडलटन ब्राउन । जिल्द उलटने के बाद, पहले पृष्ठ पर साहब के हस्ताक्षर
हैं और नीचे उसका पता-एवरग्रीन लॉज, फ्रेजर टाउन, बंगलौर-और उसके नीचे
लिखा है-जनवरी, 1858। यानी इस डायरी की उम्र एक सौ तेरह साल है। ब्राउन
साहब का नाम कई और किताबों पर था और उन्हीं किताबों के साथ यह लाल
चमड़े से मढ़ी कापी थी। नामी पुस्तकों की तुलना में कीमत बहुत ही कम थी। मकबूल
ने बीस रुपये की माँग की, मैंने दस रुपया बताया, अन्त में बारह रुपये में मामला
तय हो गया। ब्राउन साहब कोई नामी आदमी होते तो इस किताब का दाम एक
हजार तक हो सकता था।
डायरी से तत्कालीन हिन्दुस्तान के साहबों के दैनंदिन जीवन के अलावा और
किसी चीज की जानकारी प्राप्त होगी, ऐसी मैंने उम्मीद नहीं की थी। सच कह रहा
हूँ, शुरू के सौ पन्ने पढ़ जाने पर भी इससे ज्यादा कुछ नहीं मिला। ब्राउन साहब
का पेशा स्कूल-मास्टरी था। बंगलौर के किसी स्कूल में अध्यापन का काम करते
थे। साहब ने अपनी ही बातें अधिक लिखी हैं; बीच-बीच में बंगलौर शहर का भी
वर्णन है। एक जगह तत्कालीन बड़े लाट साहब की स्त्री लेडी कैनिंग के बंगलौर
आने की घटना का उल्लेख किया है। बंगलौर के फूल-फल-पेड़-पौधे और अपने बगीचे के बारे में भी लिखा है। एक जगह इग्लैण्ड के सासेक्स अंचल के अपने पैतृक घर और बिछड़े सगे-सम्बन्धियों का उल्लेख है । उनकी पत्नी एलिजाबेथ का भी उल्लेख
जिसका कई वर्ष पहले ही देहांत हो चुका था।
उसमें सबसे रोचक बात जो है वह यह कि साइमन नामक किसी व्यक्ति की
चर्चा बार-बार की गई है। यह साइमन कौन था-उसका लड़का या भाई या भांजा-यह
बात डायरी से समझ में नहीं आती है। तब हाँ, साइमन के प्रति साहब के दिल
में जो एक गहरा लगाव था, यह समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई। डायरी में साइमन
की बुद्धि, साइमन की हिम्मत, साइमन के क्रोध, अभिमान, शरारत और मनमौजीपन
वगैरह की बार-बार चर्चा की गई है। साइमन अमुक कुरसी पर बैठना पसन्द करता
है, आज साइमन की तबीयत ठीक नहीं है, आज दिन-भर साइमन पर नजर न पड़ने के कारण मन खराब है-इस तरह की छोटी-मोटी बातें भी हैं! इसके अलावा साइमन की बेधक मृत्यु की खबर भी है। 22 सितम्बर की संध्या साढ़े सात बजे वज्राघात से साइमन की मौत हुई थी। दूसरे दिन भोर के समय ब्राउन साहब के बगीचे के झुलसे हुए युकिलिप्टस के पेड़ के पास साइमन की लाश मिली थी।

इसके बाद एक महीने तक डायरी में वैसी कोई उल्लेखनीय बात नहीं है।
जो है, उसमें शोक और निराशा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। ब्राउन साहब ने स्वदेश जाने की बात सोची है मगर उनका मन नहीं चाहता कि वह साइमन की आत्मा
से दूर चला जाए। साहब की सेहत भी ज़रा खराब हो गई है। ‘आज भी स्कूल
नहीं गया’- इस बात की चर्चा पाँच-पाँच जगहों में की गई है। लुकास नामक एक
डॉक्टर का भी उल्लेख है। उसने ब्राउन साहब के सेहत की जाँच की थी और दवा
बता गया था।
उसके बाद एकाएक दो नवम्बर की डायरी में एक आश्चर्यजनक घटना का
उल्लेख किया गया है और इसी घटना ने मेरी नजर में डायरी की कीमत हजारों
गुणा बढ़ा दी है। ब्राउन साहब रोज की घटना नीली स्याही में लिखते थे पर इस
घटना को लाल स्याही से लिखा है। उसमें उन्होंने एक ऐसी घटना का उल्लेख किया
है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती (मैं उसका अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ) ।
मैं तीसरे पहर अपने मन को शान्त करने लालबाग के पेड़-पौधों के पास गया था।
शाम साढ़े सात बजे घर लौटकर ज्योंही ड्राइंगरूम के अन्दर गया, देखा, साइमन
फायरप्लेस के पास अपनी प्रिय हाइ-बैक्ड कुरसी पर बैठा है। साइमन! सचमुच साइमन ही था। मैं उसे देखकर आनन्द से पागल हो गया और वह केवल बैठा ही नहीं है, बल्कि अपनी स्नेहपूर्ण आँखों से मेरी ओर एकटक देख रहा है। इस कमरे में रोशनी नहीं है। मेरे कामचोर खानसामा टॉमस ने यहाँ बत्ती नहीं जलाई है। इसीलिए साइमन को अच्छी तरह से देखने के लिए मैंने जेब से दियासलाई बाहर निकाली। तीली के बक्से पर घिसते ही रोशनी जल उठी, मगर मुझे बड़ा ही अफसोस हुआ। इन कई क्षणों के बीच ही साइमन गायब हो गया। इतना जरूर है कि मुझे यह उम्मीद नहीं है कि फिर साइमन को कभी देख सकूँगा। इस तरह भूत की हालत में भी अगर वह बीच-बीच मे दीख जाए तो मेरे मन से तमाम दुःख दूर हो जाएँ। सचमुच आज
अपूर्व आनन्द का दिन है। मरकर भी साइमन मुझे भूल नहीं सका है-यहाँ तक
कि अपनी प्यारी कुरसी भी उसे भूली नहीं। दुहाई है साइमन-बीच-बीच में दीख
जाना। इसके अलावा मैं तुमसे और कुछ नहीं चाहता हूँ। इतना ही उपलब्ध हो जाए
तो मैं अपनी बाकी जिन्दगी शान्ति से जी लूँगा ।…
इसके बाद ‘डायरी पढ़ी नहीं जाती है। जो कुछ भी है, उसमें दुख की कोई
छाप नहीं, क्योंकि साइमन से ब्राउन साहब की हर रोज भेंट हो जाती है। साइमन के भूत ने साहब को निराश नहीं किया था।

Leave a Comment