और …. मैं हार गई!

 हिंदी साहित्य की एक अद्भुत लेखिका, भारतीय दुर्दशा की घोर चिंतक और स्त्री हृदय की ज्ञाता मन्नू भंडारी जो ना सिर्फ एक बेहतरीन लेखिका थी वरन एक राजनीतिक विश्लेशक भी थी।उनके लिखे उपन्यास “महाभोज” में उनकी राजनैतिक समझ पूरे विश्व को प्रभावित कर चुकी है। उन्होंने बहुत सारी सामाजिक कहानियों के साथ साथ कुछ राजनैतिक कहानियाँ भी लिखी वो भी ऐसी कहानियाँ जो ये बताती हैं कि वे एक श्रेष्ठ लेखिका क्यों हैं? उन्हीं कहानियों में से एक छोटी सी कहानी “मैं हार गई ” लेकर आयी हूँ आप लोगों के लिए जिसे पढ़कर आप खुद समझ जाएँगे की हाँ वो सच में हिंदी साहित्याकाश की अनमोल नक्षत्र क्यों हैं?

जब कवि-सम्मेलन समाप्त हुआ, तो सारा हॉल हँसी-कहकहों और तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था। शायद मैं ही एक ऐसी थी, जिसका रोम-रोम क्रोध से जल रहा था। उस सम्मेलन की अन्तिम कविता थी, ‘बेटे का भविष्य।’ उसका सारांश कुछ इस प्रकार था, एक पिता अपने बेटे के भविष्य का अनुमान लगाने के लिए उसके कमरे में एक अभिनेत्री की तस्वीर, एक शराब की बोतल और एक प्रति गीता की रख देता है और स्वयं छिपकर खड़ा हो जाता है। बेटा आता है और सबसे पहले अभिनेत्री की तस्वीर को उठाता है। उसकी बाँछें खिल जाती हैं। बड़ी हसरत से उसे वह सीने से लगाता है, चूमता है और रख देता है। उसके बाद शराब की बोतल से दो-चार घूँट पीता है। थोड़ी देर बाद मुँह पर अत्यंत गंभीरता के भाव लाकर, बगल में गीता दबाये बाहर निकलता है। बाप-बेटे की यह करतूत देखकर उसके भविष्य की घोषणा करता है, ‘यह साला तो आजकल का नेता बनेगा!’

वि महोदय ने यह पंक्ति पढ़ी ही थी कि हॉल के एक कोने से दूसरे कोने तक हँसी की एक लहर दौड़ गई। पर नेता की ऐसी फजीहत देखकर मेरे तो तन-बदन में आग लग गई। साथ आये हुए मित्र ने व्यंग्य करते हुए कहा, ‘क्यों, तुम्हें तो यह कविता बिल्कुल पसंद नहीं आई होगी? तुम्हारे पापा जो एक बड़े नेता हैं!’

मैंने गुस्से में जवाब दिया, ‘पसंद! मैंने आज तक इससे भद्दी और भोंडी कविता नहीं सुनी!’

अपने मित्र के व्यंग्य की तिक्तता को मैं खूब अच्छी तरह पहचानती थी। उनका क्रोध बहुत कुछ चिलम न मिलनेवालों के आक्रोश के समान ही था। उसके पिता चुनाव में मेरे पिताजी के प्रतिद्वंद्वी के रूप में खड़े हुए थे और हार गए थे। उस तमाचे को वे अभी तक नहीं भूले थे। आज यह कविता सुनकर उन्हें दिल की जलन निकालने का अवसर मिला। उन्हें लग रहा था मानो उसके पिता का हारना भी आज सार्थक हो गया। पर मेरे मन में उस समय कुछ और ही चक्कर चल रहा था। मैं जली-भुनी जो गाड़ी में बैठी, तो सच मानिए, सारे रास्ते यही सोचती रही कि किस प्रकार इन कवि महाशय को करारा-सा जवाब दूँ। मेरे पापाजी के राज में ही नेता की ऐसी छीछालेदार भी कोई चुपचाप सह लेने की बात थी भला।

चाहती तो यही थी कि कविता में ही उनको जवाब दूँ, पर इस ओर कभी क़दम नहीं उठाया था सो निश्चय किया कि कविता नहीं, तो कहानी ही सही। अपनी कहानी में मैंने एक ऐसे सर्वगुण संपन्न नेता का निर्माण करने की योजना बनाई. जिसे पढ़कर कवि महाशय को अपनी हार माननी ही पड़े। भरी सभा में वो जो नेहला मार गए थे, उस पर मैं देहला, नहीं, सीधे इक्का ही फटकारना चाहती थी, जिससे बाजी हर हालत में मेरी हो रहे।

यही सब सोचते-सोचते मैं कमरे में घुसी, तो दीवार पर लगी बड़े-बड़े नेताओं की तस्वीरों पर नज़र गई। सबके प्रतिभाशाली चेहरे मुझे प्रोत्साहन देने लगे। सब नेताओं के व्यक्तिगत गुणों को एक साथ ही मैं अपने नेता में डाल देना चाहती थी, जिससे वह किसी भी गुण में कम न रहने पाये।

पूरे सप्ताह तक मैं बड़े-बड़े नेताओं की जीवनियाँ पढ़ती रही और अपने नेता का ढाँचा बनाती रही। सुना था और पढ़कर भी महसूस किया कि जैसे कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है, वैसे ही महान आत्माएँ गरीबों के घर ही उत्पन्न होती हैं। सो सोच-विचारकर एक शुभ मुहूर्त देखकर मैंने, सब गुणों से लैस करके अपने नेता का जन्म गाँव के एक गरीब किसान की झोपड़ी में करा दिया।

मन की आशाएँ और उमंगे जैसे बढ़ती हैं, वैसे ही मेरा नेता भी बढ़ने लगा। थोड़ा बड़ा हुआ, तो गाँव के स्कूल में ही उसकी शिक्षा प्रारम्भ हुई। यद्यपि मैं इस प्रबंध से विशेष संतुष्ट नहीं थीं, पर स्वयं ही मैंने ऐसी परिस्थिति बना डाली थी कि इसके सिवाय कोई चारा नहीं था। धीरे-धीरे उसने मिडिल पास किया। यहाँ तक आते-आते उसने संसार के सभी महान व्यक्तियों की जीवनियाँ और क्रांतियों के इतिहास पढ़ डाले। देखिए, आप बीच में ही यह मत पूछ बैठिए कि आठवीं का बच्चा इन सबको कैसे समझ सकता है? यह तो एकदम अस्वाभाविक बात है। इस समय मैं आपके किसी भी प्रश्न का जवाब देने की मनःस्थिति में नहीं हूँ। आप यह न भूलें कि यह बालक एक महान भावी नेता है।

हाँ, तो यह सब पढ़कर उसके सीने में बड़े-बड़े अरमान मचलने लगे, बड़े-बड़े सपने साकार होने लगे, बड़ी-बड़ी उमंगें करवटें लेने लगीं। वह जहाँ-कहीं भी अत्याचार देखता, मुट्ठियाँ भींच-भींचकर संकल्प करता, उसको दूर करने की बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाता और मुझे उसकी योजनाओं में, उसके संकल्पों में अपनी सफलता हँसती-खेलती नज़र आती। एक बार जानकर ख़तरा मोल लेकर मैंने जमींदार के कारिंदों से भी उसकी मुठभेड़ करा दी, और उसकी विजय पर उससे अधिक हर्ष मुझे हुआ ।

तभी अचानक एक घटना घट गई। उसके पिता की अचानक मृत्यु हो गई। दवा-इलाज के लिए घर में पैसा नहीं था, सो उसके पिता ने तड़प-तड़पकर जान दे दी और वह बेचारा कुछ भी न कर सका। पिता की इस बेबसी की मृत्यु का भारी सदमा उसको लगा। उसकी बूढ़ी माँ ने रोते-रोते प्राण तो नहीं, पर आँखों की रोशनी गंवा दी। घर में उसकी एक विधवा बुआ और एक छोटी क्षयग्रस्त बहन और थी। सबसे भरण-पोषण का भार उस पर आ पड़ा। आय का कोई साधन था नहीं। थोड़ी-बहुत जमीन जो थी, उसे जमींदार ने लगान-बकाया निकालकर हथिया लिया।

उसके पिता की विनम्रता का लिहाज करके अभी तक चुप बैठा था। अब क्यों मानता? उसके क्रान्तिकारी बेटे से वह परिचित था। सो अवसर मिलते ही बदला ले लिया। अब मेरे भावी नेता के सामने भारी समस्या थी। वह सलाह लेने मेरे पास आया। मैंने कहा, ‘अब समय आ गया है। तुम घर-बार और रोटी की चिन्ता छोड़कर देश-सेवा के कार्य में लग जाओ। तुम्हें देश का नवनिर्माण करना है। शोषितों की आवाज को बुलंद करके देश में वर्गहीन समाज की स्थापना करनी है। तुम सबकुछ सफलतापूर्वक कर सकोगे? क्योंकि मैंने सब आवश्यक गुण भर दिये हैं।’

उसने बहुत ही बुझे हुए स्वर में कहा, ‘यह तो सब ठीक है, पर मेरी अन्धी माँ और बीमार बहन का क्या होगा? मुझे देश प्यारा है, पर ये लोग भी कम प्यारे नहीं।’

मैं झल्ला उठी, ‘तुम नेता होने जा रहे हो या कोई मज़ाक है? जानते नहीं, नेता लोग कभी अपने परिवार के बारे में नहीं सोचते; वे देश के, संपूर्ण राष्ट्र के बारे में सोचते हैं। तुम्हें मेरे आदेश के अनुसार चलना होगा। जानते हो, मैं तुम्हारी स्रष्टा हूँ, तुम्हारी विधाता!’

उसने सब कुछ अनसुना करके कहा, ‘यह सब तो ठीक है, पर मैं अपनी अन्धी माँ की दर्द भरी आहों की उपेक्षा किसी भी मूल्य पर नहीं कर सकता। तुम मुझे कहीं नौकरी क्यों नहीं दिला देतीं? गुज़ारे का साधन हो जाने से मैं बाकी सारा समय सहर्ष देश-सेवा में लगा दूँगा। तुम्हारे सपने सच्चे कर दूँगा। पर पहले मेरे पेट का कुछ प्रबन्ध कर दो।’

मैंने सोचा, क्यों न अपने पिताजी के विभाग में इसे कहीं कोई नौकरी दिलवा दूँ। पर पिता जी उदार नीति के कारण कोई जगह खाली भी तो रहने पाये! देखा तो सब जगहें भरी हुई थीं। कहीं मेरे चचेरे भाई विराजमान थे, तो कहीं फुफेरे। मतलब यह है कि मैं उसके लिए कोई प्रबंध न कर सकी। उसका मुँह तो चीर दिया, पर उसे भरने का प्रबन्ध न कर सकी। हारकर उसने मजदूरी करना शुरू कर दिया। जमींदार की नयी हवेली बन रही थी, वह उसमें ईंटे ढोने का काम करने लगा। जैसे-जैसे वह सिर पर ईंटे उठाता, उसके अरमान नीचे को धसकते जाते। मैंने लाख बार उसे यह काम न करने के लिए कहा, पर वह अपनी माँ-बहन की आड़ लेकर मुझे निरुत्तर कर देता। मुझे उस पर कम क्रोध नहीं था। फिर भी मुझे भरोसा था, क्योंकि बड़ी-बड़ी प्रतिभाओं और गुणों को मैंने उसको घुट्टी में पिला दिया था। हर परिस्थिति में वे अपना रंग दिखाएँगे। यह सोचकर ही मैंने उसे उसके भाग्य पर छोड़ दिया और तटस्थ दर्शक की भांति उसकी प्रत्येक गतिविधि का निरीक्षण करने लगी।

उसकी बीमार बहन की हालत बेहद ख़राब हो गई। वह उसे बहुत प्यार करता था। उसने एक दिन काम से छुट्टी ली और शहर गया, उसके इलाज के प्रबंध की तलाश में। घूम-फिरकर एक बात उसकी समझ में आई कि काफी रुपया हो तो उसकी बहन बच सकती है। रास्ते-भर उसकी रुग्ण बहन के करुण चीत्कार उसके हृदय को बेधते रहे। बार-बार जैसे उसकी बहन चिल्ला-चिल्लाकर कह रही थी, ‘भैया! मुझे बचा ला! कहीं से भी रुपये का प्रबंध करके मुझे बचा लो, भैया!

मैं मरना नहीं चाहती!’… और सामने उसके बाप की मृत्यु का दृश्य घूम गया। गुस्से से उसकी नसें तन गई। वह गाँव आया और वहाँ के जितने भी संपन्न लोग थे,सबसे क़र्ज़ माँगा, मिन्नतें की, हाथ जोड़े; पर निराशा के अतिरिक्त उसे कुछ नहीं मिला। इस नाकामयाबी पर उसका विद्रोही मन जैसे भड़क उठा। वह दिन-भर बिना बताये, जाने क्या-क्या संकल्प करता रहा और आधी रात के करीब दिल में निहायत ही नापाक इरादा लेकर वह उठा।

मैं काँप गई। वह चोरी करने जा रहा था। मेरे बनाये नेता का ऐसा पतन ! वह चोरी करे ! छी:-छीः! और इसके पहले कि चोरी जैसा जघन्य कार्य करके वह अपनी नैतिकता का हनन करता, मैंने उसका ही खात्मा कर दिया। अपनी लिखी हुई कहानी के पन्नों को टुकड़े-टुकड़े कर दिया।

उसकी तबाही के साथ एक महान नेता के निर्माण करने का मेरा हौसला भी मुझे तबाह होता नज़र आया। लेकिन इतनी आसानी से मैं हिम्मत हारनेवाली नहीं थी। बड़े धैर्य के साथ मैं अपनी कहानी का विश्लेषण करने बैठी कि आखिर क्यों,सब गुणों से लैस होकर भी मेरा नेता, नेता न बनकर चोर बन गया? और खोजबीन करते-करते मैं अपनी असफलता की जड़ तक पहुँच ही गई। ग़रीबी के कारण ही उसके सारे गुण दुर्गुण बन गए और मेरी मनोकामना अधूरी ही रह गई। जब सही कारण सूझ गया, तो उसका निराकरण क्या कठिन था !

एक बार फिर मैंने कलम पकड़ी और नेता बदले हुए रूप और बदली हुई परिस्थितियों में फिर एक बार इस संसार में आ गया। इस बार उसने शहर के करोड़पति सेठ के यहाँ जन्म लिया, जहाँ न उसके सामने पेट भरने का सवाल था, न बीमार बहन के इलाज की समस्या। असीम लाड़-प्यार और धन-वैभव के बीच वह पलने लगा। बढ़िया-से-बढ़िया स्कूल में उसे शिक्षा दी गई। उसकी अलौकिक प्रतिभा देखकर सब चकित रह जाते। वज अत्याचार होते देखकर तिलमिला जाता, जोशीले भाषण देता, गाँव में जाकर वह बच्चों को पढ़ाता। गरीबी के प्रति उसका दिल दया से लबालब भरा रहता। अमीर होकर भी वह सादगी से जीवन बिताता, सारांश यह कि महान नेता बनने के सभी शुभ लक्षण उसमें नज़र आये। क़दम क़दम पर वह मेरी सलाह लेता,और मैंने भी उसके भावी जीवन का नक्शा उसके दिमाग में पूरी तरह उतार दिया था, जिससे वह कभी भी पथभ्रष्ट न होने पाये।

मैट्रिक पास करके वह कॉलेज गया। जिस कॉलेज में एक समय में केवल राजाओं के पुत्र ही पढ़ा करते थे और जहाँ रईसी का वातावरण था, उसी कॉलेज में उसके पिता ने उसे भर्ती कराया। लेकिन मेरी सारी सावधानी के बावजूद उन रईसाज़ादों की सोहबत अपना रंग दिखाये बिना न रही। वह अब ज़रा आरामतलब हो गया। मेरे सलाह मशविरों की अब उसे उतनी चिन्ता न रही। घण्टों अब वह कॉफी-हाऊस में रहने लगा। और एक दिन तो मैंने उसे हाउजी खेलते देखा। मेरा दिल धक्-से कर गया। जुआ! हाय राम! यह क्या हो गया! मैं सँभलकर कुर्सी पर बैठ गई और कलम को कसकर पकड़ लिया। कलम को जोर से पकड़कर ही मुझे . मानो मैंने उसकी नकेल को कसकर पकड़ लिया हो। पर उसके तो जैसे अब पर निकल आये थे। जुआ ही उसके नैतिक पतन की अंतिम सीमा न रही। कुछ दिनों बाद ही मैंने उसे शराब पीते भी देखा। मेरा क्रोध सीमा के बाहर जा चुका था। मैंने उसे अपने पास बुलाया। अपने क्रोध पर जैसे-तैसे काबू रखते हुए मैंने उससे पूछा, ‘जानते हो, मैंने तुम्हें किसलिए बनाया है?’

वह भी मानो मेरा सामना करने के लिए पूरी तरह तैयार होकर आया था। बोला, ‘अपने स्वार्थ की पूर्ति करने के लिए, अपनी इच्छा पूरी करने के लिए तुमने मुझे बनाया पर, यह ज़रूरी नहीं कि मैं तुम्हारी इच्छानुसार ही चलूँ मेरा अपना अस्तित्व भी है, मेरे अपने विचार भी हैं।’

मैं चिल्ला उठी, ‘जानते हो, तुम किससे बातें कर रहे हो? मैं तुम्हारी स्रष्टा हूँ, तुम्हारी निर्माता! मेरी इच्छा से बाहर तुम्हारा कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं!’ वह हँस पड़ा, ‘अरे! तुमने अपनी कलम से पैदा किया है। मेरे इन दोस्तों को देखा! इनकी अम्माओं ने इन्हें अपने जिस्म से पैदा किया है। फिर भी वे इनके निजी जीवन में इतना हस्तक्षेप नहीं करतीं, जितना तुम करती हो। तुमने तो मेरी नाक में दम कर रखा है। ऐसा करो, वैसा मत करो! मानो मैं आदमी नहीं काठ का उल्लू हूँ। सो बाबा ऐसी नेतागिरी मुझसे निभाये न निभेगी। यह उम्र, दुनिया की रंगीनी और घर की अमीरी! बिना लुत्फ उठाये यों ही जवानी क्यों बर्बाद की जाए? यह सब करके क्या नेता बना जा सकता?’

और मैं कुछ कहूँ, उसके पहले ही वह सीटी बजाता हुआ चला गया। कल्पना तो कीजिए उस जलालत की जो मुझे सहनी पड़ी! इच्छा तो यही हुई कि अपने पहलेवाले नेता की तरह इसका भी सफाया कर दूँ। पर संदमा इतना गहरा था कि जोश भी न रहा। इतना सब हो जाने पर भी जाने क्यों मन में एक क्षीण-सी आशा बनी हुई थी कि शायद वह सीधे रास्ते पर पर आ जाये। गाँधीजी ने भी तो एक बार बचपन में चोरी की थी, बुरे कर्म किये थे, फिर अपने-आप रास्ते पर आ गये। संभव है, इसके हृदय में भी कभी पश्चात्ताप की आग जले और यह अपने आप सुधर जाये। पर प्रतीक्षा करने लगी जब वह पश्चात्ताप की अग्नि में झुलसता हुआ मेरे चरणों में आ गिरेगा और अपने किये के लिए क्षमा माँगेगा!

पर ऐसा शुभ दिन कभी नहीं आया। जो दिन आया, वह कल्पनातीत था। एक बहुत ही सुहावनी साँझ को मैंने देखा कि वह खूब सजधज रहा है। आज का लिबास कुछ अनोखा ही था। शार्कस्किन के सूट की जगह सिल्क की शेरवानी थी। सिगरेट की जगह पान था। सेंट महक रहा था। बाहर हॉर्न बजा और वह गुनगुनाकर अपने मित्र की गाड़ी में जा बैठा। गाड़ी एक बार के सामने रुकी। और रात तक वे साहबजादे पेग-पर-पेग डालते रहे, भद्दे मजाक करते रहे और ठहाके लगाते रहे। रात को नौ बजे वे उठे, तो पैर लड़खड़ा रहे थे। जैसे-तैसे गाड़ी में बैठे और ड्राइवर से जिस गंदी जगह चलने को कहा, उसका नाम लिखते भी मुझे लज्जा आती है!

अपने को बहुत रोकना चाहती थी, फिर भी वह घोर पाप मैं सहन न कर सकी और तय कर लिया कि आज जैसे भी होगा, मैं फ़ैसला कर ही डालूंगी। मैं गुस्से से काँपती हुई उसके पास पहुँची। इस समय उससे बात करने में भी मुझे घृणा हो रही थी, क्रोध से मेरा रोम-रोम जल रहा था! फिर भी अपने को काबू में रखकर और स्वर को भरसक कोमल बनाकर मैंने उससे कहा, ‘एक बार अंतिम चेतावनी देने के ख़याल से ही मैं इस समय तुम्हारे पास आई हूँ। तुम्हारा यह सर्वनाश देखकर, जानते हो, मुझे कितना दुख होता है? अब भी समय है, सँभल जाओ। सुबह का भूला यदि शाम को घर आ जाये, तो भूला नहीं कहलाता।

पर इस समय वह शायद मुझसे बात करने की मनःस्थिति में ही नहीं था। उसने पान चबाते हुए कहा, ‘अरे जान! यह क्या तुमने हर समय नेतागिरी का पचड़ा लगा रखा है? कहाँ तुम्हारी नेतागिरी और कहाँ छमिया का छमाका! देख लो, तो बस सरूर आ जाये।’

मैंने कान बंद कर लिया। वह कुछ और भी बोला, पर मैंने सुना नहीं। पर जो उसने आँख मारी, वह दिखायी दी और मुझे लगा, जैसे पृथ्वी घूम रही है। मैंने आँखें बंद कर लीं और गुस्से से होंठ काट लिए। क्रोध के आवेग में कुछ भी कहते नहीं बना, केवल मुँह से इतना ही निकला, ‘दुराचारी! अशिष्ट! नारकीय कीड़े!’

उसके मित्र ने जो कुछ कहा, उसकी हल्की-सी ध्वनि मेरे कान में पड़ी। वह जाते- जाते कह रहा था, ‘अरे! ऐसी घोर हिंदी में फटकारोगी तो वह समझेगा भी नहीं! ज़रा सरल भाषा बोलो!’

और अधिक सहना मेरे बूते के बाहर की बात थी। मैंने जिस कलम से उसको उत्पन्न किया, उसी कलम से उसका खात्मा भी कर दिया। वह छमिया के यहाँ जाकर बैठनेवाला था कि मैंने उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया। जैसा किया, वैसा पाया!

उसने तो अपने किए का फल पा लिया, पर मैं समस्या का समाधान नहीं पा सकी। इस बार की असफलता ने तो बस मुझे रुला ही दिया। अब तो इतनी हिम्मत भी नहीं रही कि एक बार फिर मध्यम वर्ग में अपना नेता उत्पन्न करके फिर से प्रयास करती। इन दो हत्याओं के भार से ही मेरी गर्दन टूटी जा रही थी, और हत्या का पाप ढोने की न इच्छा थी, न शक्ति ही। और अपने सारे अंह को तिलांजलि देकर बहुत ही ईमानदारी से मैं कहती हूँ कि मेरा रोम-रोम महसूस कर रहा था कि कवि भी भरी सभा में शान के साथ जो नेहला फटकार गया था, उस पर इक्का तो क्या, मैं दुग्गी भी न मार सकी। मैं हार गई, बुरी तरह हार गई।

तो ये थी आज के ‘साहित्य’ की एक कड़वी मगर सच्ची कहानी जिसे लिखा था श्रीमती मन्नू भंडारी ने। अगर आपको अच्छी लगी हो तो इसे शेयर करना ना भूले। मिलते हैं अगले ब्लॉग में तब तक किताबों से प्यार करतें रहिये।

6 thoughts on “और …. मैं हार गई!”

  1. vaise aap bahut axha likhati hai, mai pichhale kai dino se aapke blog padh raha hu aapki soch aur lekhana pratibha mein mujhe aik bhavi lekhika ki mahak aa rahi hai, mai aapse milana chahta hu,mai kanpur university se hindi sahitya se research kar raha hu, aapke lekh padne ke baad mujhe aapse milane ki ati teevra ichcha huyi hai, aapke jawab ka intejaar rahega

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  2. danyavad awantika ji may be hamara lu aana hoga jald hi to mujhe aap se milane ka avasar pradan ho, vaise aap aur kya shauk rakhati hai

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