चांदनी रात भगकि विष्णु मन-ही-मन सोच रहे थें – मैं विचार करता था कि मनुष्य सृष्टि का सुंदर निर्माण है किंतु मेरा विचार भ्रामक सिद्ध हुआ । कमल के फूल को, जो वायु के झोंकों से हिलता है, मैं देख रहा हूं कि संपूर्ण जीव-मात्र से परिपूर्ण और सुंदर है। पंखुड़ी अभी तक चमक रही है। वह इतना सुंदर है कि मैं अपनी दृष्टि उसपर से नहीं हटा सकता। हाँ, मानव में इसके समान कोई वस्तु विद्दमान नहीं हैं।
भगवान विष्णु ने एक ठंढी सांस खींची। उसके एक क्षण पश्चात वो सोचने लगे – आखिर किस प्रकार मुझे अपनी शक्ति से एक नवीन अस्तित्व उत्पन्न करना चाहिए,जो मनुष्यों में ऐसा हो, जैसे फूलों में कमल हैं, जो आकाश और प्रथ्वी दोनों के लिए प्रसन्नता का कारण बने। ऐ कमल!तू एक सुंदर युवती के रूप में परिवर्तित हो जा और मेरे सामने खड़ा हो। जल में एक-सी लहर उत्त्पन्न हुई जैसे कृष्ण चिड़िया के पंखों से प्रकट होती है। रात अधिक प्रकाशमान हो गई। चन्द्रमा के पूरे प्रकाश के साथ चमकने लगा, किंतु कुछ समय पश्चात सब सहसा मौन हो गए जैसे कोई जादू हुआ हो, भगवान के सम्मुख कमल मानव-रूप में खड़ा था।
वह ऐसा सुंदर था कि भगवान को स्वयं आश्चर्य हुआ। उस रूपवती को सम्बोधित कर भगवान विष्णु बोले, “तुम इसके पहले सरोवर का फूल थी, अब मेरी कल्पना का फूल हो, मुझसे बातें करो। सुंदर युवती ने बहुत धीरे से बोलना आरम्भ किया जैसे कि कमल की पंखुडिय़ां प्रांत:काल के झोकें से बज उठती हैं “महाराज, आप ने मुझे मानवीय रूप में परिवर्तित किया है कहिये अब आप मुझे किस स्थान पर रहने की आज्ञा देंगे। पहले मैं पुष्प थी तो वायु के थपेडों से डरा करती थी और अपनी पंखुड़ियां बंद कर लेती थीं। मैं वर्षा और आंधी से भय मानती थी, बिजली और उसकी कड़क से मेरे हृदय को डर लगता था, मैं सूर्य की जलाने वाली किरणों से डरा करती थी। आपने मुझे कमल से इस अवस्था में बदला है, अत: मेरी पहली-सी प्रकृति है। मैं पृथ्वी से और जो कुछ भी इसपर विद्दमान है भय खाती हूं, अब आज्ञा दे कि मैं कहाँ रहूं? भगवान विष्णु ने तारों की तरह दृष्टि की, एक क्षण तक कुछ सोचा फिर बोले,” तुम नागराज के शिखरों पर रहना चाहती हो? ” नहीं महाराज,वहाँ बर्फ हैं और मैं शीत से डरती हूँ।” अच्छा मैं समुन्दर की तह में शीशमहल बनवा दूँगा। जल की गहराइयों में सर्प और भयानक जंतु रहते हैं, इसीलिए मुझे डर लगता है।” तो क्या तुमको सुनसान उजाड़ स्थान रुचिकर हैं? नहीं महाराज, वन की तूफानी हवा मैं कैसे सहन कर सकूंगी ? तो फिर तुम्हारे लिए कौन सा स्थान निश्चित किया जाए? हां, अजंता की गुफाओं में साधु रहते हैं, क्या तुम उन सब से अलग एक गुफा में रहोगी? महाराज, वहाँ बहुत अँधेरा है,मुझे डर लगता हैं।” भगवान घुटने के नीचे हाथ रखकर बैठ गए उनके सामने वह सुंदरी सहमी हुई खड़ी थी।
बहुत देर के उपरांत जब ऊषा-किरण के प्रकाश ने पूर्व दिशा में आकाश को प्रकाशित किया , जब सरोवर का जल, ताड़ के वृक्ष और हरे बांस सुनहरे हो गए तो इसके साथ ही वीणा की मस्त कर देने वाली लय से मिश्रित प्रेमगान आरम्भ हो गया। विष्णु अब तक दुनिया की चिंता में संलग्न हैं, अब चौंके और कहा “देखो! कवि वाल्मीकि सूर्य को नमस्कार कर रहें हैं। कुछ समय पश्चात केसरिया परदे जो चांदनी से ढके हुए थे हट गए और सरोवर के समीप कवि वाल्मीकि प्रगट हुए। मनुष्य के रूप में बदले हुए कमल के फूल को देखकर उन्होंने वाद्ययंत्र बजाना बंद कर दिया। वीणा उनके हाथों से गिर पड़ी, दोनों हाथ जंघाओं पर जा लगे। वह खड़े -के-खड़े रह गए। जैसे सर्वथा किंकर्तव्यविमूढ़ थे।
भगवान विष्णु ने पूछा, “वाल्मीकि, क्या बात है, मौन हो गए? वाल्मीकि बोले , “महाराज, आज प्रेम का पाठ पढ़ा हैं।” इससे अधिक कुछ न कह सके। विष्णु का मुख सहसा चमक उठा।उन्होंने कहा “सुंदर कामिनी।” मुझको तेरे रहने योग्य स्थान मिल गया ,जा कवि के हृदय में निवास कर। __भगवान विष्णु ने वाल्मीकि के हृदय को शीशे समान निर्मल बना दिया था। वह सुंदरी अपने स्थान पर प्रविष्ट हो रही थी , किंतु जैसे ही उसने वाल्मीकि के ह्रदय की गहराई मापी उसका मुख पीला पड़ गया और भय छा गया। भगवान विष्णु को आश्चर्य हुआ, वे बोलें, “क्या कवि-हृदय में भी रहने से डरती हो?” “महाराज, आपने किस स्थान पर मुझे रहने की आज्ञा दी है,मुझको तो उस एक ही हृदय में नागराज के शिखर, जल की गहराई और अजंता की अँधेरी गुफाएं दृष्टिगोचर हो रही हैं, इसीलिए महाराज मैं भयभीत हूँ।”
यह सुनकर विष्णु मुस्कुराये बोले “मनुष्य के रूप में परिवर्तित सुमन रत्न!यदि कवि के हृदय में हिम है तो तुम वसंत ऋतु की उष्ण समीर का झोका बन जाओगी जो हिम को पिघला देगी,यदि उसमें गहराई है तो तुम मोती बन जाओगी। यदि निर्जन वन है तो तुम उसमें सुख और शांति के बीज बो दोगी। यदि अजंता की गुफा है तो तुम उसमें सूर्य का प्रकाश बन चमकोगी। कवि ने इस बीच में बोलने की शक्ति प्राप्त कर ली थी। उसकी ओर देखते हुए भगवान विष्णु बोले, “जाओ, यह वस्तु मैं तुम्हें देता हूँ , इसे लो और सुखी रहो।”
– गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर