कम उम्र में अधिक प्रसिद्धि पाने वाले इस संसार में नाममात्र के दो-चार लेखक ही हुए हैं, उनमे भी “माँ” उपन्यास के लेखक मैक्सिम गोर्की को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया जा सकता हैं।जो ना सिर्फ एक क्रान्तिकारी लेखक थे बल्कि एक युगदृष्टा भी थें। आज के इस ब्लॉग में इसी रशियन लेखक की कहानी लायी गई हैं आपके जो 30-40 के दशक में रूस की आम जनता का जीवन दिखाने का प्रयास करती हैं।
फिर उससे सहानुभूतिपूर्वक पूछा, “यहाँ कौन लेटा है?” “मेरा बेटा है । “। “क्या वह बहुत बड़ा था ?”
“नहीं, बारह साल का था।”
‘“उसकी मौत कब हुई?”
“चार साल पहले ।”
स्त्री ने दीर्घ निश्वास छोड़ी और अपने बालों की लट को दुशाले के नीचे कर लिया। उस दिन बड़ी गर्मी थी। मुर्दों की उस नगरी पर सूरज बड़ी बेरहमी से चमक रहा था। कब्रों पर जो थोड़ी-बहुत घास उग आई थी, वह मारे गर्मी और धूल के पीली पड़ गई थी और सलीबों के बीच यत्र-तत्र धूल से भरे पेड़ ऐसे चुपचाप खड़े थे, मानो मौत ने उन्हें भी अपने साये में ले लिया हो। लड़के की समाधि की ओर सिर से इशारा करते हुए मैंने पूछा, “उसकी मौत कैसे हुई “घोड़ो की टापों से कुचलने से।” उसने गिने-चुने शब्दों में उत्तर दिया और समाधि को जैसे सहलाने के लिए झुर्रियों से भरा अपना हाथ उस ओर बढ़ा दिया।
“ऐसा कैसे हुआ?”
जानता था कि मैं अभद्रता दिखा रहा था, लेकिन उस स्त्री को इतना गुमसुम देखकर मेरा मन कुछ उत्तेजित और कुछ खीझ से भर उठा था। मेरे अन्दर यह सनक पैदा हो गई थी कि जरा उसकी आँखों में आँसू देखूँ। उसकी उदासीनता में अस्वाभाविकता थी पर मुझे लगा कि वह उस ओर से बेसुध थी। मेरे सवाल पर उसने अपनी आँखें ऊपर उठाई और मेरी ओर देखा । फिर सिर से पैर तक मुझ पर निगाह डालकर उसने धीरे-से आह भरी और बड़े मन्द स्वर में अपनी कहानी कहनी शुरू की घटना इस तरह घटी। इसके पिता गबन के मामले में डेढ़ साल के लिए जेल चले गए थे। हमारे पास जो जमा-पूँजी थी वह इस बीच खर्च हो गई। बचत की कमाई ज्यादा तो थी नहीं। जिस समय तक मेरा आदमी जेल से छूटा हम लोग घास जलाकर खाना पकाते थे। एक माली गाड़ी भर वह बेकार घास मुझे दे गया था। उसे मैंने सुखा लिया था और जलाते समय उसमें थोड़ा बुरादा लेती थी। उससे बड़ा ही बुरा धुआँ निकलता था और खाने के स्वाद को खराब कर देता था। उस समय मेरा बेटा कोलुशा, जो इस समय यहाँ सोया हुआ है, स्कूल जाता था। वह बहुत ही तेज और किफायत वाला लड़का था। जब वह स्कूल से घर लौटता तो हमेशा एकाध कुन्दा या लकड़ियाँ, जो रास्ते में पड़ी मिलतीं, उठा लाता। उन दिनों वसन्त का मौसम था। बर्फ पिघल रही थी। और कोलुशा के पास कपड़े के जूतों के सिवाय पाँवों में पहनने के लिए और कुछ नहीं था। तभी उसके पिता को उन्होंने जेल से रिहा कर दिया और गाड़ी में बैठाकर घर छोड़ गए। जेल में उसे लकवा मार गया था। वह घर में पड़ा पड़ा मेरी ओर ताकता रहा। उसके चेहरे पर एक कुटिल सी मुस्कान थिरकती रहती थी। मैं भी उसकी ओर देखती और मन-ही-मन सोचती- ‘तुमने ही हमारा यह हाल किया है। और तुम्हारा यह दोजख मैं अब कहाँ से भरूँगी? एक ही काम अब मैं तुम्हारे साथ कर सकती हूँ। वह यह कि तुम्हें उठाकर किसी जोहड़ में पटक दूँ?” लेकिन कोलुशा ने जब उसे देखा तो चीख उठा, उसका चेहरा धुली हुई चुका चादर की तरह सफेद पड़ गया और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे-“यह इन्हें क्या हो गया है, माँ?” उसने पूछा। मैंने कहा-“यह अपने दिन पूरे कर चुके।” और इसके बाद तो हालात बद से बदतर होते चले गए। काम करते-करते मेरे हाथ टूट जाते, लेकिन पूरा सिर मारने पर भी बीस कोपेक से ज्यादा न मिलते।ये भी तब, जब भाग्य से दिन अच्छे होते। मौत से भी बुरी हालत थी,मन में आता कि अपने इस जीवन को खतम कर लूँ। एक बार, जब हालत असहनीय हो गई तो मैंने कहा-“मैं तो तंग आ गई हूँ इस मनहूस जीवन से। अच्छा हो अगर मैं मर जाऊँ, या फिर तुम दोनों में से कोई एक खतम हो जाए।” अक्सर यह कोलुशा और उसके पिता की तरफ इशारा था। उसका पिता केवल गरदन हिलाकर रह गया, मानो कह रहा हो- ‘झिड़कती क्यों हो? जरा सब्र रखो, मेरे दिन तो वैसे ही करीब आने लगे हैं।’ लेकिन कोलुशा देर तक मेरी ओर देखता रहा, इसके बाद वह मुड़ा और घर से बाहर चला गया। उसके जाते ही अपने शब्दों पर मुझे बड़ा अफसोस हुआ। लेकिन अब अफसोस करने से क्या होता? तीर तो कमान से निकल चुका था। एक घंटा भी न बीता होगा कि पुलिस की गाड़ी घर के बाहर आकर रुकी जिसमें एक पुलिसमैन बैठा था। उसने पूछा- “क्या तुम्हीं शिशेनीना हो?” मेरा कलेजा बैठने लगा। मेरे ‘हाँ’ कहने पर उसने कहा-“तुम्हें अस्पताल बुलाया गया है। तुम्हारा बेटा आनोखिन घोड़ागाड़ी से कुचला गया है।” मैं गाड़ी में बैठकर अस्पताल के लिए चल पड़ी। गाड़ी की गद्दीदार सीट पर जैसे काँटे उग आए थे, मैं ऐसी बेचैनी से पहलू बदल रही थी और मेरी आत्मा मुझे कचोटते हुए कह रही थी कि बदनसीब औरत! यह तूने क्या किया। क्यों माँगी थी ऐसी मन्नत। आखिरकार गाड़ी अस्तपाल पहुँची।
मैंने कमरे में जाकर देखा तो मेरा बेटा पट्टियों का पुतला-सा बना बिस्तर पर पड़ा था। मुझे देखकर वह धीरे-से मुस्कराया, फिर उसकी आँखों से आँसू थरथराकर गालों पर लुढ़क आए। वह फुसफुसाकर बोला-“मुझे माफ कर देना माँ। मेरे पैसे पुलिसमैन के पास हैं।” ‘‘पैसे? कैसे पैसे?” मैंने उत्सुकता से पूछा- “कौन से पैसे?” ‘‘वही पैसे, जो लोगों ने सड़क पर मुझे दिए थे और सौदागर ने भी।”
“तुम्हें दिए थे, मगर किसलिए …?” तभी मुझे खयाल आया कि अभी तक मैंने उससे घटना के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं पूछा है, अतः बात का रुख बदलकर जल्दी से मैंने उससे पूछा–“यह सब कैसे हुआ? क्या तुम घोड़ों को आते हुए देख नहीं सके थे?” उसके मुँह से हलकी-सी कराह निकली, फिर उसकी आँखें पीड़ा के कारण फैल-सी गई। अवश्य ही उसे वह दृश्य याद आ गया होगा। जब घोड़ों ने उसे पैरों तले रौंदा था। मगर फिर एकाएक ही उसके चेहरे पर कठोरता उभर आई और स्पष्ट शब्दों में बोला-“मैंने सब कुछ देखा था माँ गाड़ी भी और घोड़े भी। मगर में जान-बूझकर रास्ते से नहीं हटा। मैंने सोचा कि यदि में कुचला गया तो लोग मुझे पैसे देंगे, और उन्होंने दिए भी।” उसकी बात सुनकर मुझे धक्का-सा लगा। अब मेरी आँखें खुली कि मेरे नन्हे से उस फरिश्ते ने यह क्या कर डाला था। लेकिन मौका चूक गया। अगली सुबह ही वह चल बसा। उसका दिमाग अन्त तक सक्रिय था
मैं सौदागर आनोखिन के पास गई, मगर उसने भुनभुनाते हुए मुझे सिर्फ पाँच रूबल ही दिए। उसने उलटा मुझे डाँटते हुए कहा-“लड़का खुद जान-बूझकर घोड़ों के नीचे आया था, पूरा बाजार इसका साक्षी है, तब क्यों रोज आकर तुम मेरी जान खाती हो। अब मैं कुछ नहीं दूँगा।”
बस, फिर कभी मैं उसके पास नहीं गई।
इतना कहकर वह मौन हो गई और पूर्ववत् निर्विकार नेत्रों से कब्र को घूरने लगी। कब्रिस्तान में फिर सन्नाटा व्याप्त हो गया। सलीब, रोगी-जैसे पेड़, मिट्टी के ढेर और कब्र पर इतने दुःखी भाव से गुमसुम बैठी वह स्त्री इस सब की वजह से मैं मृत्यु और इन्सानी दुःख के बारे में सोचने लगा। लेकिन आसमान साफ था और धरती पर ढलती गर्मी की वर्षा कर रहा था। मैंने अपनी जेब से कुछ सिक्के निकाले और उस स्त्री को ओर बढ़ा दिए, जिसे तकदीर ने मार डाला था, फिर भी वह जिए जा रही थी।उसने सिर हिलाया और बहुत ही रुकते रुकते कहा, “भाई, तुम अपने को क्यों हैरान करते हो! आज के लिए मेरे पास बहुत हैं। अब मुझे ज्यादा की जरूरत भी नहीं है। मैं अकेली हूँ दुनिया में बिलकुल अकेली। उसने एक लम्बी साँस ली और फिर मुँह पर वेदना से उभरी रेखाओं के बीच अपने पतले होंठ बन्द कर लिये।
Really it's tragic story😢
A very good story,
Thank you for your sharing. I am worried that I lack creative ideas. It is your article that makes me full of hope. Thank you. But, I have a question, can you help me?
ya tell