मैंने छलांग लगाई और छिकु के बालों को कसकर पकड़ लिया और फिर उसके सिर को झंदु की दीवार से चार-पाँच बार जोरों से टकरा दिया। उसके बाद जब मैंने छिकु को छोड़ा तो वह रोता हुआ अपने घर की तरफ चला गया।
मैं जब घर पहुँचा, उसके पहले ही छिकु शिकायत पहुँचा गया था। मगर आश्चर्य की बात है कि तब माँ ने न तो मुझे मारा और न डाँटा फटकारा ही। दरअसल उसे विश्वास ही नहीं हुआ, क्योंकि इसके पहले मैंने कभी किसी से मारपीट नहीं की थी। इसके अलावा माँ को यह मालूम था कि मैं छिकु से डरता हूँ।मगर बाद में माँ ने जब मुझसे इसके बारे में पूछताछ की तो मैंने सच बात कह दी। सुनकर माँ हैरान हो गई। बोली, ‘ऐं, तुमने छिकु का सिर फोड़ दिया है ?” मैंने कहा, ‘हाँ । छिकु ही क्यों, जो भी आदमी चींटी की बांबी तोड़ेगा । उसका सिर फोड़ दूँगा।’ इस बात से माँ को बड़ा गुस्सा आया। उसने मुझे बेहद पीटा और कमरे के अन्दर बन्द कर दिया। उस दिन शनिवार था। पिताजी जल्दी ही कचहरी से लौट आए थे। जब माँ से उन्हें सारी बातें मालूम हुईं तो उन्होंने मेरे कमरे के दरवाजे पर बाहर से ताला लगा दिया।
मार खाने के कारण हालाँकि मेरी पीठ दर्द कर रही थी, मगर इसके लिए मेरे मन में कोई दुख न था । अगर दुख था तो चींटी के कारण ही उस बार सहाबगंज में, जहाँ परिमल रहता है, दो ट्रेनें आपस में टकरा गई थीं और लगभग तीन सौ आदमियों की मृत्यु हो गई थी। आज छिकु के लाठी के वार से इतनी इतनी चींटियाँ मर गई ! कितना अन्याय है, कितना अन्याय !… बिस्तर पर लेटे-लेटे जब यही सब सोच रहा था तो मेरा सिर चकराने लगा और मैं बदन में ठंड महसूस करने लगा। चादर तानकर मैंने करवट बदली। उसके बाद कब मेरी आँखों में नींद उतर आई इसका पता नहीं चला। एक बहुत ही महीन और मीठी आवाज, बहुत कुछ संगीत की तरह, आरोह-अवरोह के साथ सुनाई पड़ रही है। मैंने ध्यान से सुनने की कोशिश की मगर पता नहीं चला कि वह आवाज किधर से आ रही है। शायद कहीं दूर संगीत का कार्यक्रम चल रहा है। लेकिन इस तरह का गीत इसके पहले सुनने को नहीं मिला है। लीजिए, मैं गीत सुनने में मग्न हूँ और ये हजरत कब नाली से आकर उपस्थित हो गए हैं, इसका पता भी नहीं चला। यह मेरी वही जानी-पहचानी चींटी है, जिसे मैंने अब मैंने ठीक से पानी से बचाया था। मेरी ओर ताकती हुई। दोनों पैरों को माथे से छुलाकर मुझे नमस्कार कर रही है। इसका नाम क्या रखा जाए? काली? केष्टो? काला चाँद ? सोचनाnहोगा। मित्र है मगर नाम नहीं। यह कैसे हो सकता है? मैंने अपनी हथेली खिड़की पर रख दी। अपने अगले पैरों को सिर से नीचे की तरफ हटाकर चीटी धीरे-धीरे मेरी ओर आने लगी। उसके बाद मेरी कनिष्ठ उँगली से होती हुई मेरे हाथ पर आई और मेरी हथेली की आँकी बाँकी नदी जैसी रेखाओं पर चहल कदमी करने लगी। तभी दरवाजे पर खट से आवाज हुई और मैं चौंक उठा। चींटी भी हड़बड़ाती हुई हाथ से नीचे उतर आई और नाली के अन्दर चली गई। उसके बाद ताला खोलकर माँ अन्दर आई और मुझे एक कटोरा दूध पीने के लिए दिया। फिर मेरी आँखों को देखने और बदन को छूने पर उसको पता चला कि मुझे बुखार आ गया है। दूसरे दिन सवेरे डाक्टर साहब आए। माँ ने कहा, “सदानन्द रात-भर छटपट-छटपट करता रहा है और ‘काली-काली’ बुड़बुड़ाता रहा है।” माँ ने शायद सोचा कि मैं देवी-देवता का नाम ले रहा था। असली बात माँ को मालूम ही नहीं है। डाक्टर साहब ने मेरी पीठ पर जब स्टेथस्कोप लगाया तो उस समय भी मुझे कल के जैसा ही मृद संगीत सुनाई पड़ा। आज कल से कुछ तेज आवाज थी और स्वर भी कुछ दूसरी ही तरह का लगा, खिड़की की तरफ से ही संगीत का स्वर आ रहा है। लेकिन डाक्टर साहब ने मुझे चुपचाप पड़े रहने को कहा था। इसलिए मैं मुड़कर नहीं देख सका डाक्टर साहब मेरे शरीर की जाँच करके खड़े हो गए और मैंने तिरछी निगाहों से खिड़की की तरफ देखा। बाप रे, आज तो एक नया ही मित्र आया है – च्यूंटा! और वह मुझे नमस्कार कर रहा है। फिर क्या तमाम चीटियाँ ही मेरी मित्र हैं? गीत भी क्या यही च्यूंटा गा रहा है? मगर माँ तो गीत के बारे में कुछ भी न कह रही है। फिर क्या वह सुन नहीं पा रही है? पूछने के खयाल से मैं माँ की तरफ मुड़ा ही था कि तभी वह फटी-फटी आँखों से खिड़की की ओर ताक रही है। उसके बाद अचानक मेज से मेरी हिसाब की कापी उठाकर मेरी तरफ झुकी और कापी पटककर उसे मार डाला। उसके साथ ही गीत का सिलसिला थम गया।
माँ ने कहा, “बाप रे, चींटी का उपद्रव कितना बढ़ गया है। कहीं तकिये पर चढ़कर कान के अन्दर जाकर काट ले तो हालत खराब हो जाए!” डाक्टर साहब जब इंजेक्शन देकर चले गए तो मैंने मरे हुए च्यूंटे की ओर देखा। इतना सुन्दर गीत गाते-गाते बेचारा चल बसा। यह तो ठीक मेरे इन्द्रनाथ दादाजी की जैसी हालत हुई। वे भी बड़े ही मधुर गीत गाते थे। यह जरूर था कि उनका गीत हमारी समझ में ठीक से नहीं आता था। लेकिन बड़े बुजुर्गों का कहना था कि वह उच्चकोटि का शास्त्रीय संगीत था। वे भी इसी तरह एक दिन तानपूरा लेकर गीत गा रहे थे कि एकाएक उनकी मृत्यु हो गई। जब उन्हें श्मशान की ओर ले जाया गया था तो उनके पीछे-पीछे शहर का एक कीर्त्तनिया दल था जो हरिनाम का संकीर्तन गाता हुआ जा रहा था। मैंने इसे अपनी आँखों से देखा था और वह बात अब भी मुझे याद है, हालाँकि उस समय मैं बिलकुल छोटा था।
बाल दिवस विशेष: सदानंद की छोटी सी दुनिया A psychological story part one
आज एक अद्भुत घटना घटी इन्जेक्शन लेकर जब मैं नींद में खो गया तो सपने में देखा, चींटियों का एक विशाल झुंड मृत च्यूटे को इन्द्रनाथ दादा जी की तरह ही श्मशान की ओर लेकर जा रहा है। दस या बारह चींटियों ने उन्हें कन्धे पर उठा लिया है और बाकी चींटियाँ कीर्त्तन जैसा गीत गाती हुई पीछे-पीछे चली जा रही हैं। तीसरे पहर माँ ने जैसे ही मेरे सिर पर हाथ रखा कि मेरी नींद खुल गई। मैंने खिड़की की तरफ गौर से देखा वहाँ मरी हुई चींटी नहीं थी। उस बार मेरा बुखार आसानी से उतरने का नाम नहीं ले रहा था। उतरे तो कैसे, दोष तो मेरे घरवालों का ही है। घर के सभी लोगों ने चींटियों को मारना शुरू कर दिया था। दिन-भर अगर चींटियों की उस तरह की चीखें सुननी पड़ें तो बुखार बढ़ेगा ही। मुझे एक और मुसीबत का सामना करना पड़ता है। हमारे घर के लोग जब भंडार घर या आँगन में चींटियों को मारते हैं तो दूसरी चींटियों का झुंड मेरी खिड़की के पास आकर बेहद रोने लगता है। समझ गया, ये चींटियाँ चाहती हैं कि मैं इनकी तरफ से कोई काम करूँ-या तो चींटियों का मारा जाना रुकवा दूँ या उन्हें जो लोग मारते हैं उन्हें डाँट-फटकार सुनाऊँ। मगर बुखार रहने के कारण मेरी देह में ताकत नहीं थी। और ताकत अगर रहती तो भी छोटा होने के कारण बड़े-बुजुगों को कैसे डाँट-फटकार सुनाता ?
मगर आखिर में कुछ-न-कुछ इन्तजाम करना ही पड़ा। यह बात झाडू पीटने दिन कौन-सा था, याद नहीं। इतना ही याद है कि उस दिन खूब तड़के मेरी नींद टूट गई थी। नींद टूटते ही सुना, फटिक की माँ चिल्ला-चिल्लाकर कह रही है कि रात के वक्त एक च्यूटे ने उनके कान के अन्दर जाकर काट लिया है। यह जानकर मुझे बेहद खुशी हुई थी। मगर उसके बाद ही की आवाज सुनकर समझ गया कि चींटियों को मारने का अभियान शुरू हो गया है।
उसके बाद एक अजीब घटना घटी। अचानक कानों में धीमी आवाज आई- ‘बचाओ! बचाओ! हम लोगों की रक्षा करो!’ मैंने खिड़की की तरफ गौर से देखा। चींटियों का झुंड खिड़की के ऊपर आकर घबराहट के मारे चहल कदमी कर रहा है। चींटियों के मुँह से यह बात सुनकर मैं खामोश नहीं रह सका। बीमारी की बात भूलकर में बिस्तर से कूद कर बरामदे में चला आया। शुरू में मेरी समझ में यह नहीं आया कि क्या करूँ, उसके बाद सामने एक घड़ा देखकर उसे उठाकर पटक दिया। उसके बाद जो भी टूटने लायक चीजें थीं, उन्हें तोड़ना शुरू कर दिया। मैंने बहुत ही कारगर उपाय खोज निकाला था क्योंकि उसके बाद मेरा काण्ड देखकर चींटियों को मारने का अभियान रुक गया। मगर उसी क्षण मॉ, बाबूजी, छोटी बुआ जी, साबीदी- जितने भी लोग थे-घबराकर बाहर निकल आए और मुझे कसकर
पकड़ लिया। उसके बाद मुझे गोद में उठाकर खाट पर पटक दिया और दरवाजे को ताले से बन्द कर दिया। मैं मन-ही-मन बेहद हँसा और मेरी खिड़की पर चींटियों ने खुशी के मारे नाचना शुरू कर दिया और मुझे शाबाशी देने लगीं। उसके बाद में ज्यादा दिनों तक घर में नहीं रहा, क्योंकि एक दिन डाक्टर साहब ने मेरी जाँच करने के बाद कहा कि घर पर रहने से चिकित्सा में सुविधा नहीं होगी और मुझे अस्पताल जाना होगा। अभी मैं जहाँ हूँ, वह अस्पताल का एक कमरा है। मैं यहाँ चार दिनों से हूँ। पहले दिन मुझे यह कमरा बहुत बुरा लगा था, क्योंकि यह इतना साफ-सुधरा है कि लगता है चींटी यहाँ हो ही नहीं सकती। चूँकि कमरा नया है इसलिए छेद-दरार नहीं है। कोई अलमारी भी नहीं है कि जिसके नीचे या पीछे चींटी रह सके। नाली अलबत्ता है, मगर वह भी बेहद साफ-सुधरी है। हाँ, एक खिड़की है और खिड़की के बाहर ही आम के एक पेड़ का ऊपरी हिस्सा है। उसकी एक डाल खिड़की के बिलकुल करीब है। समझ गया, अगर चींटी होगी तो उसी डाल पर होगी।
मगर पहले दिन मैं खिड़की के पास जा ही नहीं सका। कैसे जाऊँ? दिन-भर डाक्टर, नर्स और घर के आदमी मेरे कमरे में अन्दर आते-जाते रहे हैं। दूसरे दिन भी यही हालत रही। मेरा मन बेहद उदास हो गया। मैंने दवा की एक शीशी तोड़ डाली। नये डाक्टर साहब बेहद झुंझला उठे। नये डाक्टर साहब भले आदमी नहीं हैं। यह बात मैं उनकी मूँछ और चश्मे को देखकर ही समझ गया था। तीसरे दिन एक घटना घट गई। तब कमरे में सिवाय एक नर्स के और कोई नहीं था और वह भी कोने की एक कुरसी पर बैठी किताब पढ़ने में तल्लीन थी। मैं चुपचाप लेटा हुआ था और यह तय नहीं कर पा रहा था कि क्या करूँ। तभी धप से आवाज हुई और मेरी आँखें उसकी ओर मुड़ गईं। देखा, उसके हाथ से किताब गोद पर गिर गई है और वह नींद में खो गई है। यह देखकर मैं आहिस्ता से बिस्तर से उठा और दबे पाँवों खिड़की के पास पहुँच गया।उसके बाद खिड़की के निचले पल्ले पर पाँव रखकर, और अपने शरीर को यथासम्भव बाहर निकालकर, मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाया। मेरे हाथ की पहुँच की सीमा में आम की एक डाल आ गई और उसे पकड़कर मैंने खींचना शुरू किया। तभी मेरा दाहिना पाँव अचानक पल्ले से खिसक गया और खट् से आवाज हुई। उस आवाज से नर्स की नींद टूट गई। अब जाऊँ तो कहाँ जाऊँ! नर्स के मुँह से एक विकट आवाज निकली और वह दौड़ती हुई मेरे पास आई। उसके बाद मुझे पकड़कर खींचती हुई ले आई और बिछावन पर पटक दिया। डाक्टर साहब ने मुझे एक इन्जेक्शन दिया। उन लोगों की बातचीत से पता चला कि मैं खिड़की से नीचे कूदने जा रहा था। कितने बेवकूफ हैं ये लोग इतनी ऊँचाई से आदमी कूदे तो उसकी हड्डी पसली टूटेगी ही, साथ ही साथ जान जाने की भी नौबत आ जाएगी। डाक्टर साहब के चले जाने के बाद मुझे नींद आने लगी और अपने मकान की खिड़की की बात भी याद आने लगी। मेरा मन बहुत ही उदास हो गया। पता नहीं, कब घर लौटकर जाऊँगा!सोचते सोचते मैं नींद में खो गया था कि तभी एक धीमी आवाज सुनाई पड़ी, ‘सिपाही हाजिर है हुजूर । सिपाही हाजिर है।’ मैंने आँख खोलकर देखा। मेरी खाट की बगलवाली मेज की सफेद चादर पर, दवा की शीशी के बिलकुल पास ही शान के साथ दो लाल माटे खड़े हैं। ये दोनों जरूर ही पेड़ से मेरे हाथ पर होते हुए यहाँ आए हैं। मुझे इसका पता भी नहीं चला।
मैंने कहा, ‘सिपाही?’
जवाब मिला, ‘हाँ, हुजूर!’
‘तुम लोगों का नाम क्या है?” मैंने पूछा ।
एक ने कहा, लालबहादुर सिंह और दूसरे ने अपना नाम लालचन्द पाँडे बताया। मुझे बेहद खुशी हुई। मैंने उन दोनों को सावधान कर दिया कि बाहर का आदमी आए तो वे कहीं छिप जायें वरना उनकी जान चली जाएगी। लालचन्द और लालबहादुर ने मुझे लम्बी सलामी दी और कहा, ‘ठीक है हुजूर ।’उसके बाद दोनों ने मिलकर एक बहुत मधुर गीत गाना शुरू कर दिया। आज मैं उस गीत को सुनते-सुनते नींद में खो गया ।
अब जल्दी-जल्दी कल की घटना बता दूँ, क्योंकि घड़ी पाँच बार टन टन आवाज कर चुकी है। डाक्टर के आने का समय हो चुका है। कल तीसरे पहर में लेटा-लेटा लालबहादुर और लालचन्द की कुश्ती देख रहा था। मैं बिस्तर पर था और वे लोग मेज पर। दोपहर में मुझे सोना चाहिए था। मगर कल इन्जेक्शन लेने और दवा खाने के बावजूद नींद नहीं आई थी। या कह सकते हैं कि जान-सुनकर नींद को मैंने अपने पास फटकने नहीं दिया था। दोपहर में यदि सो जाऊँ तो फिर चींटियों के साथ कब खेलूँगा ? कुश्ती जोर-शोर से चल रही थी। जीत किसकी होगी, समझ में नहीं आ रहा था। तभी खटखट कर जूते की आवाज हुई। लो, डाक्टर साहब आ रहे हैं! मैंने अपने मित्रों को इशारा किया और लालबहादुर झट से मेज के नीचे चला गया। मगर बेचारा लालचन्द कुश्ती करते-करते चित होकर गिर पड़ा था और हाथ-पैर शून्य में पटक रहा था। यही वजह है कि वह जल्दी से भाग नहीं सका और उसके चलते एक बहुत ही बुरा काण्ड हो गया। डाक्टर बाबू ने वहाँ आने पर लालचन्द को मेज पर देखा तो पता नहीं अंग्रेजी में झुंझलाकर क्या कहा और एक ही झटके में उसे फर्श पर पटक दिया। लालचन्द बेहद जख्मी हो गया, यह बात उसकी चीख से ही समझ में आ गई। मगर मैं कर ही क्या सकता हूँ? इस बीच मेरी नाड़ी की परीक्षा करने के खयाल से डाक्टर साहब ने मेरा हाथ थाम लिया था। एक बार हाथ ठेलकर मैंने उठने की कोशिश भी की मगर दूसरी ओर से नर्स ने आकर मुझे कसकर पकड़ लिया। नाड़ी की जाँच कर डाक्टर साहब हर रोज की तरह मुँह लटकाये, अपनी मूँछों के इर्द-गिर्द के हिस्से को खुजलाते हुए दरवाजे की तरफ जा ही रहे थे कि पता नहीं क्यों हठात् उछल पड़े और उनके मुँह से तीन-चार किस्म की बंगला अंग्रेजी के शब्द बाहर निकल आए- ‘इह ओह! आउच ।’ उसके बाद तो काण्ड ही हो गया। स्टेथेस्कोप छिटककर नीचे गिर पड़ा, चश्मा गिरकर टूट गया, कोट खोलने के समय बटन टूट गया, टाई खोलने में गले में गाँठ लग गई, अन्त में कमीज खोलने पर गंजी का छेद तक बाहर निकल आया। फिर भी डाक्टर का उछलना और चिल्लाना बंद नहीं हुआ। मैं तो अवाक् रह गया। नर्स ने पूछा, ‘क्या हुआ सर?” डाक्टर साहब ने उछलते-उछलते कहा, ‘ऐन्ट! रेड ऐन्ट! आस्तीन से चढ़कर-ओह! ओह!’
वाह-वाह! बात क्या मेरी समझ में नहीं आई? अब मजा चखो। आस्तीन से होकर लालबहादुर सिंह गया था दोस्त का बदला लेने के लिए। उस समय अगर कोई मुझे देखता तो यह नहीं कह सकता था कि सदानन्द हँसना नहीं जानता। समाप्त।
– सत्यजित रॉय (लेखक)
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