“सत्यानाश हो उस हरामी के पिल्ले का, जिसने ऐसी जानलेवा चीज़ बनाई!”…खाली बोतल को हिला हिलाकर शंकर इस तरह ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था जिससे कि रसोई में काम करती हुई उसकी पत्नी सुन ले | “घर का घर तबाह हो जाए, आदमी की जिन्दगी तबाह हो जाए; पर यह जालिम तरस नहीं खाती! कैसा मूर्ख होता है आदमी भी, वह समझता है वह इसे पी रहा है; पर असल में यह आदमी को पीती है, आदमी की जान को, आदमी के ख़ून को पीती है… उसके ईमान को पीती है, हाँ-हाँ!” यों ही बकता – बहकता, खाली बोतल का मुग्दर घुमाता हुआ शंकर रसोई के दरवाज़े पर पहुँच गया: “देखा, यह खाली हो गई?” और बोतल को उल्टी करते हुए बोला : “एकदम खाली! अब मैं चाहता हूँ कि मैं इसे भरूँ और पिऊँ और यह कम्बख्त चाहती है कि यह मेरे पेट में भर जाए और मुझे पिए!… पिएँ… दोनों खूब पिएँ!”
आनन्दी सिर झुकाए हुए जौ की मोटी-मोटी रोटियाँ सेंक रही थी। वह सब सुनती है, पर बोलती नहीं । क्या बोले? बोलने को उसके पास कुछ है भी नहीं, कभी भी तो कुछ नहीं कहा । वाणी कुन्द हुए वर्षों हो गए। वह जानती है, शंकर को कल पीने को नहीं मिला, वह बहुत कष्ट पा रहा है। परसों उसने बहुत चाहा था कि किसी तरह कुछ पीस डाले, पर उठा ही नहीं गया। सारा बदन जैसे जुड़ गया था । इस गठिया ने उसे अपाहिज बना दिया है। कल सारे दिन शंकर बका था, आनन्दी पर दो-तीन लातें भी पड़ी थीं; पर वह पैसा न दे सकी।
“कल रात तो तूने बड़ी देर तक पीसा था, आनन्दी । पिसाई नहीं मिली क्या?” बिना पिए शायद शंकर को सारी रात नींद नहीं आई, तभी तो उसे है कि उसने सारी रात पीसा । पर पिसाई, कैसे दे दे वह पिसाई ? आनन्दी का मन बड़ा बोझिल हो आया । एक हूक-सी उठी मन में । हथेलियों के छाले पिड़ा उठे ।… पर शंकर को फिर नींद नहीं आएगी। ये जौ की रोटियाँ उसने बनाई हैं, वह खाएगा नहीं। सारी दोपहरी, सारी रात बकेगा, तड़पेगा, उसे मारेगा । आनन्दी उठी, ताँबे की एक कटोरी में से कुछ पैसे लाकर उसने शंकर के हाथ में रख दिए । “तेरी-जैसी सती नार का भगवान जरूर भला करेगा आनन्दी! तेरा बेटा भी एक दिन लौट आएगा, जरूर-जरूर लौट आएगा। ऐसी औरत के साथ तो भगवान भी दुश्मनी नहीं निभा सकता !”
शंकर चला गया तो वह अपनी हथेलियाँ देखने लगी-छालों से भरी हुई हथेलियाँ। टप-टप आँसू टपकने लगे आँखों से। उसके छालों पर हमेशा आँसुओं का ही तो मरहम लगा है। ” हे भगवान, मुझे मौत आ जाए!… कोई मुझे यहाँ से ले जाए!” एक घुटी-घुटी सी आह और उससे भी ज्यादा घुटी-घुटी आवाज़। “सुनती है, आनन्दी, तेरे बेटे की चिट्ठी आई है! अरे, वह जीता-जागता है, बड़ा आदमी हो गया है!” हाथ में चिट्ठी लिए दौड़ता सा शंकर आनन्दी के पास आया : “देख-देख, किशनू की चिट्ठी आई है! उसने कपड़े की दुकान कर ली है!…ले, देख, देख !”
अवाक् सी आनन्दी शंकर का मुँह देखती रह गई। शंकर के हाथ में बोतल नहीं, काग़ज़ था । गोबर से सने हाथ आनन्दी ने एक बार आगे बढ़ाए, फिर वापस खींच लिए। कहीं पैसे लेने के लिए शंकर उसके साथ मज़ाक़ तो नहीं कर रहा है? उसकी आँखों में कुछ ऐसा भाव उभर आया, मानो कह रही हो, ऐसा क्रूर मज़ाक़ मत करो मेरे साथ! तुम्हें पैसे चाहिए तो यों ही माँग लो। “बुद्ध-जैसी क्या देख रही है? देख, अपने बेटे की लिखाई पहचानती है या नहीं?” और पत्र को उसने आनन्दी की आँखों से सटा दिया, “तेरे नाम लिखी है-अपनी माँ के नाम। मुझसे तो वह आज भी गुस्सा है। हरामी कहीं का!” गाली आनन्दी के सीने में जा लगी। दूसरा आदमी – मानव कौल। खोटा सिक्का- मन्नू भंडारी. विजेता – रघुवीर सहाय Son – Maxim gorky
“सुन, क्या लिखा है,” और शंकर ज़ोर-ज़ोर से पत्र पढ़कर सुनाने लगा : “कपड़े की दुकान जम गई तो शादी भी कर ली….. एक छोटा सा पक्का मकान भी बना लिया । … अब तुझे मैं अपने ही साथ रखूँगा। यह सब मैंने तेरे ही लिए किया है, माँ!… मैं तुझे लेने आ रहा हूँ…।” आनन्दी को लगा, जैसे यह सब शंकर पढ़ नहीं रहा; किशनू बोल रहा है। किशनू की आवाज़ वह कभी भूल सकती है भला! उसकी आँखों के सामने किशनू का आँसू-भरा चेहरा उभर आया।
“अरे, कल तेरा बेटा आ रहा है – बारह साल बाद । राम चौदह साल बाद आए थे तो अयोध्यावालों ने दीवाली मनाई थी । तू भी दीवाली मना, तेरा राम आ रहा है न !… आज तो दो रुपए माँगू तो भी कम हैं। सच कहता हूँ जो परसों से एक बूँद भी गले के नीचे गई हो तो! और अब क्या बात है! तेरे बेटे का मकान है, कपड़े की दुकान है।” कहकर शंकर ने सामने रखी गोबर की ढेरी पर कसकर एक लात मारी । दूर-दूर तक गोबर छिटक गया : “तू अब उपले नहीं थापेगी, समझी? कुछ नहीं करेगी। चल, दो रुपए दे, निकाल ।” आनन्दी ने चुपचाप हाथ धोए। दो रुपए दिए। दो रात उसने सिलाई की थी, और दिन में उपले थापे थे, सूत काता था, तब जाकर अढ़ाई रुपए मिले थे। आठ आने का धान लाई थी, बाक़ी रुपए…
रुपए हाथ में आते ही शंकर ने जल्दी-जल्दी सिर पर साफ़ा लपेटा और चलने लगा। आनन्दी ने धीरे से कहा : “चिट्ठी तो देते जाओ।”
“ले ये चिट्ठी। अरे, मैं कोई झूठ थोड़े ही बोल रहा हूँ? कल तेरा बेटा आ रहा है। जा, किसी से पढ़वा ले। सत्यानासी बुलाए बिना नहीं मानी।बदजात कहीं की !” और लम्बे-लम्बे डग भरता वह बाहर निकल गया ।
कल किशनू आ रहा है, सचमुच ही किशनू आ रहा है। और जैसे इतनी देर बाद उसे पहली बार बोध हुआ कि उसके जीवन में क्या कुछ घट गया। बारह साल बाद उसका बेटा आ रहा है एकाएक चबूतरे पर बैठकर ही आनन्दी फूट-फूटकर रो पड़ी। ऊपर से सदा ही शान्त रहनेवाले पर्वत के भीतर का ज्वालामुखी जब फूटता है तो कोई भी शक्ति उस आवेग को रोक नहीं पाती। बारह साल बाद वह कल अपने किशनू को देखेगी! उसका बेटा, उसका खोया हुआ बेटा वापस आ रहा है!…शंकर आज के दिन भी शराब पीने गया। क्यों नहीं वह सारे मुहल्ले में दौड़ता फिरा? क्यों नहीं उसने घर-घर जाकर ख़बर दी कि किशनू आ रहा है? क्यों नहीं उसके पास बैठकर उसने बात की कि किशनू के आने की तैयारी में क्या-क्या किया जाए ?… तैयारी? उसकी आँखों के सामने ताँबे की खाली कटोरी घूम गई। शंकर के प्रति तीखी घृणा और विरक्ति से उसका मन भर गया। वह उठी। अपने घर के चारों ओर उसने नज़र डाली। कितना बदल गया है उसका घर इन बारह सालों में! कच्ची दीवारों में मोटी-मोटी दरारें पड़ गईं हैं, आँगन में जहाँ-तहाँ से गोबर की मोटी-मोटी पपड़ियाँ उतर गई हैं। उसने आजकल लीपना-पोतना भी छोड़ ही दिया था। इतना समय ही कहाँ रहता था उसके पास। फिर किसके लिए लीपे-पोते? किशनू क्या कहेगा यह घर देखकर? लेकिन एक दिन में अब वह कर भी क्या सकती है? साँझ आई और चारों ओर धुँधलका छा गया तो मूँज की ढीली ढाली खटिया आँगन में डालकर वह लेट गई ।
“दीया बाट, बहू खाट!” थककर बड़ी रात गए वह सोने जाती तो भी उसकी सास उसे ताना सुनाया करती थी। आज तो सचमुच ही वह दीया जलते ही खाट पर आ लेटी थी। आज वह रोटी नहीं बनाएगी। सवेरे उसने रोटी नहीं खाई थी, उससे खाई ही नहीं गई। शंकर आकर वही रोटी खा लेगा। पीकर आता है तो उसे गर्म रोटी चाहिए । न मिलने पर वह गुस्से में मार भी बैठता है। फिर भी आनन्दी नहीं उठी। आज और मार ले, कल तो फिर उसका बेटा आ जाएगा। फिर देखे तो, कोई उसको हाथ लगा के ! किशनू ने सारी चिट्ठी माँ के लिए ही लिखी है। अपने कक्का के लिए कुछ भी नहीं लिखा । कुछ भी हो, कम-से-कम चिट्ठी में तो कुछ लिख देता। आख़िर बाप है। पर वह जानती है कि किशनू कितना जिद्दी, कितना गुस्सैल है। तभी तो भाग गया। फिर भी बाप के लिए एक अजीब सी करुणा उसके मन में उभर आई।
शंकर अभी तक नहीं लौटा। पता नहीं, कब लौटेगा! आज के दिन न पीता तो क्या हो जाता ? सामने मिट्टी के पक्के चबूतरे पर नज़र गई। सीमेंट के गमले में सूखी, मरियल सी तुलसी की चार-पाँच टहनियाँ इधर-उधर सिर झुकाए दिखाई दे रही थीं, आठ-दस पीले मुरझाए पत्ते हवा में लटक रहे थे, पत्तों पर धूल की परत जमी हुई थी। आनन्दी आजकल तुलसी पर दीया नहीं जलाती । जिस दिन किशनू भागा था, उस दिन से उसने दीया नहीं जलाया । कौन सी कामना बाक़ी रह गई थी, जिसके लिए वह दीया जलाती ? पर इस समय मन हुआ कि एक दीया जलाकर रख दे। आनन्दी ने उठकर पहले तुलसी में पानी दिया, फिर दीया जलाकर रख दिया। प्रकाश का एक वृत्त रह-रहकर काँपने लगा। अनेक स्मृतियाँ काँपने लगीं- अनेक चित्र काँपने लगे ।
….दस साल की आनन्दी जेवरों से लदी- फँदी इस घर की पुत्रवधू बनकर आई थी। उसकी सास ने उससे चबूतरे पर दीया जलवाया था और कहा था कि अपने सुहाग की मनौती माँग लेना, बहू । रोज़ इस पर दीया जलाना, घर की यह तुलसी कल्पतरु है । सुहाग का वह तब अर्थ भी नहीं जानती थी; फिर भी उसने अपने सुहाग की कुशलता की कामना की थी, रोज़ दीया जलाने का संकल्प किया था । बहू का नयापन दो ही दिन में उतर गया था और उसे पता लग गया था कि इस घर, इन जेवरों और गायों-भैंसों के बीच जो कुछ है वह बहुत ही कष्टकर है। उसे पल-पल में रोना आने लगा।…माँ, कक्का, दद्दा आदि याद आते। वह छिप-छिपकर बिसूरती । सास देख लेती तो ऐसे नोंचती कि मांस निकल आता। किसी काम में कसर रह जाती तो सास ऐसे लतियाती बस, आँसू बहते रहते और आँसू बहाते-बहाते एक दिन उसे एक नया ज्ञान कि वह औंधे मुँह गिरकर तड़फड़ाने लगती।… उसकी बोली बन्द हो गई, कि यह सास उसके जीवन की कर्णधार नहीं- शंकर उसके जीवन का कर्णधार है। और तब वह उस दिन की राह में समय काटने लगी जब उसका असली कर्णधार उसका भार सँभालेगा। वह दिन तो जल्दी ही आ गया; पर कर्णधार भार संभालने के बजाय भार बन गया – ऐसा भार, जिसे ढोने के लिए उसे अपने कन्धे बड़े कमज़ोर लगे ।
शंकर घर का इकलौता लड़का था। पिता थे नहीं। माँ के पास बेटे के अवगुण देखनेवाली आँखें नहीं थीं। उसे सही रास्ते पर लगानेवाला कोई अंकुश नहीं था। उसे पीने की जो लत पड़ी तो घर का धन ही नहीं गया, आनन्दी की क़िस्मत और बच्चों का भविष्य भी चला गया। माँ के मरने के बाद शंकर बिल्कुल बिलल्ला ही हो गया। दो बच्चे बीमारी में तड़पकर मर गए। बच्चे चले गए, खेत-खलिहान चले गए, गाय-भैंसें चली गईं। रह गए शंकर और किशनू । किशनू को छाती से लगाए- लगाए वह काम करती । न हाथ रुकते, न आँसू । शंकर या तो सोता या नशे में उत्पात मचाता ! वह मार खाती, किशनू मार खाता ।
चौदह साल का किशनू एक दिन तैश में आ गया और बाप पर झपट पड़ा : “कक्का! तुमने माँ के हाथ लगाया तो मैं तुम्हारा ख़ून पी जाऊँगा…. मैं सच कहता हूँ, तुम्हारा ख़ून पी जाऊँगा!” और वह बाप से जूझ गया |
“मैं तेरे हाथ जोड़ती हूँ किशनू, तू हट जा! तुझे मेरे सिर की सौगन्ध है जो तू कक्का पर हाथ उठाए । तू हट जा, किशनू, हट जा!” और किशनू हटा तो ऐसा हटा कि बारह साल तक मुँह नहीं दिखाया। आनन्दी शंकर के पैरों पर गिर-गिरकर रोई, बोली : “मेरे बेटे को ढूँढ़वा दो। मैं उसे लेकर कहीं चली जाऊँगी! उसके बिना मुझसे जिन्दा नहीं रहा जाएगा! मैं तुम्हें जिन्दगी-भर पीने को दूँगी, अपना हाड़ गला-गलाकर पीने को दूँगी! तुम मेरे किशनू को ढूँढ़ दो !” पर न शंकर ने किशनू को ढूँढा, न आनन्दी मरी। हाँ, हाड़ गला- गलाकर वह पिलाती रही और शंकर पीता रहा ।
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