जॉन एलिया की शायरी “दिल जो दीवाना नहीं।
दिल जो दीवाना नहीं आख़िर को दीवाना भी था
भूलने पर उस को जब आया तो पहचाना भी था
जानिया किस शौक़ में रिश्ते बिछड़ कर रह गये
काम तो कोई नहीं था पर हमें जाना भी था
अजनबी-सा एक मौसम एक बेमौसम-सी शाम
जब उसे आना नहीं था जब उसे आना भी था
जानिये क्यूँ दिल की वहशत दर्मियां में आ गयी
बस यूँ ही हम को बहकना भी था बहकाना भी था
इक महकता-सा वो लम्हा था कि जैसे
इक ख़याल इक ज़माने तक उसी लम्हे को तड़पाना भी था ।