“महाशून्य” एक स्त्री के जीवन की दुःखद कथा।
मिसेज सक्सेना के भव्य ड्राइंगरूम में प्रवेश करते ही लगा जैसे हम कश्मीर में आ गए हों। बाहर इतनी चिलचिलाती धूप थी कि गाड़ी एकदम भट्ठी की तरह तप रही थी। जब तक एसी अपना काम करता हम लोग पहुंच ही चुके थे। अपने गद्देदार सोफे में धंसकर मिसेज सक्सेना ने आवाज दी, “पारवती पानी लाना ।
पानी की सचमुच जरूरत थी। प्यास के कारण गला चटक रहा था। जैसे ही ट्रे सामने आई, मैंने अधीरता से गिलास उठा लिया। गिलास उठाते हुए आंखें भी ऊपर उठ गई थीं और उस चेहरे पर टिक गई थीं। चेहरा बेहद जाना-पहचाना था पर उसे यहां देखने की कभी कल्पना भी न की थी। क्षण भर को हमारी नजरें मिलीं और उस क्षणांश में, उस नजर में जो कौंध गया, उससे मैं समझ गई कि अपने परिचय को यहां उजागर नहीं करना है।
“जब भी कोई बाहर से आए, पानी बिना कहे ले आया करो, समझी! मिसेज सक्सेना ने ताकीद की।
पल भर को उस चेहरे पर जैसे राख-सी पुत गई। गिलास वापस ट्रे में रखते मैंने जानबूझकर अपनी नजरें वहां से हटा लीं।
मिसेज सक्सेना फिर शुरू हो गई थीं। मुझसे उन्हें कितना कुछ पूछना था, कितना कुछ जानना था इसलिए तो वे किटी से मुझे अपने साथ ले आई थीं। अभी कुछ देर तक मेरा भी उत्साह उनसे होड़ ले रहा था पर अब मेरा मन कहीं और चला गया था। पांच-छह महीने बेटे के पास बिताकर जब भी स्वदेश लौटती हूं, ढेर सारी खबरें मेरा इंतजार करती होती हैं। ये खबरें गली-मोहल्ले की होतीहैं—
सोसायटी की होती हैं इसीलिए अमेरिका नहीं पहुंच पातीं पर उन खबरों का भी अपना महत्त्व होता है। जैसे आशीष मल्होत्रा के यहां जुड़वा बच्चे का जन्म हुआ है-मेहता जी की बिटिया का मेडिकल में एडमिशन हो गया- कुलेश जी के बेटा-बहू अलग हो गए हैं-गुप्ता जी की माताजी लंबी बीमारी के बाद चल बसी हैं- अस्थाना जी के घर बहुत बड़ी चोरी हुई है आदि-आदि।
इसी सिलसिले में इस बार यह भी सुना कि सोसायटी में हर वार-त्योहार पर आने वाली पंडिताइन के पति नहीं रहे। उन्हें हम लोगों ने हमेशा पंडिताइन के पति के रूप में ही जाना। उनका अस्तित्व हमारे लिए हमेशा अदृश्य ही बना रहा, क्योंकि पिछले पंद्रह साल से वे बिस्तर पर ही थे। पंडिताइन उनकी जी-जान से सेवा कर रही थीं पर काम के लिए बाहर तो निकलना ही पड़ता था। जजमानी ही तो एकमात्र आजीविका का साधन था। उसे कैसे छोड़ देतीं।
फिर उन्हें ताले में बंद करके बाहर निकलतीं पर आधा ध्यान घर में ही लगा रहता। ऐसे क्षणों में अपना निस्संतान होना उन्हें बहुत सालता था। हारी-बीमारी में साथ दे ऐसा कोई सगा-संबंधी भी तो नहीं था। और होता भी तो कितने दिन साथ देता। बीमारी क्या दिन की थी। पूरे पंद्रह बरस हो गए थे। इसे तो उम्र भर झेलना था।
इसीलिए पंडिताइन के पति की मृत्यु का समाचार सुनकर मैंने अनजाने ही राहत का अनुभव किया। चलो, अब बेचारी कुछ दिन तो खुलकर सांस ले सकेगी। जिंदगी के जितने भी बचे-खुचे दिन हैं, चैन से जी सकेगी। पंडिताइन को जैसे उम्रकैद से रिहाई मिल गई है। थोड़ी देर बाद पारवती चाय-नाश्ता रख गई। हम लोग किटी से ही लौटे थे इसलिए नाश्ता तो मैंने वापस भिजवा दिया। चाय का कप उठाते हुए पूछा-“महराजिन नई लगती है। ”
“हां, अभी तीन महीने ही हुए हैं। वह हमारी पूनम थी न, उसकी शादी हो गई। फिर दो-तीन लोगों को ट्राइ किया पर मामला जमा नहीं। कुछ तो बहुत सुस्त थीं, कुछ जरूरत से ज्यादा स्मार्ट निकलीं। फिर चौकीदार इसे ले आया। बूढ़ी हैं पर काम संभाल लेती हैं। खास तो खाने का ही है, ढंग का बना लेती हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि चपर-चपर नहीं करतीं। इधर-उधर ताक-झांक भी नहीं करतीं। बस अपने काम से काम रखती हैं।” ‘सब तरह का खाना बना लेती हैं। ”
“अरे नहीं, वैसे भी नॉन-वेज तो हमारे यहां अकसर शाम को ही बनता है। इनके ऑफिस का एक चपरासी है। वही आकर बनाता है।” अभी हम लोग बात कर ही रहे थे कि सदर दरवाजा भड़भड़ाकर खुला और उनके दोनों बच्चे भीतर दाखिल हुए। बस्ते एक ओर फेंककर दोनों सोफे में धंस गए। जूते दूसरी ओर उछालते हुए उन्होंने आवाज दी–“पारवती बॉर्नविटा लाओ। ”
वह आवाज मेरे कलेजे में तीर की तरह चुभी। अपनी दादी की उम्र की महिला को बच्चे किस बदतमीजी से पुकार रहे थे। हैरत की बात तो यह थी कि उनकी मां को भी उसमें कुछ गलत नजर नहीं आ रहा था। नहीं तो एकाध बार टोकतीं तो!
मुझे तो यह बड़ा अजीब लगा। हम लोग तो उन संस्कारों में पले हुए हैं। जहां घर में काम करने वालों के साथ भी एक रिश्ता बनाया जाता है। वे नौकर नहीं होते बल्कि भैया, दादा, काका या बाबा होते हैं। महिलाएं हमारी मौसी, बुआ या भाभी बन जातीं। हमें यही संस्कार मिले थे और हमने अपने बच्चों को, बच्चों के बच्चों को भी यही सिखाया है।
पंडिताइन तो पूरे मोहल्ले की अम्मा थीं पर यहां वह केवल पारवती थीं। वह ट्रे में दूध के दो गिलास लेकर आईं। बच्चों को गिलास पकड़ाकर उन्होंने ट्रे मेज पर रखी और उनके जूते और बस्ते उठाकर भीतर ले गईं। कुछ देर बाद आकर बच्चों के खाली गिलास और कप-प्लेट लेकर चली गईं। इसके बाद वह फिर लौटीं और पूछा- ‘मैडम मैं जाऊं।” मिसेज सक्सेना ने घड़ी की ओर देखा और स्वीकृति में सिर हिला दिया।
उसके बाद बामुश्किल तमाम मैं मिसेज सक्सेना को पंद्रह-बीस मिनट और झेलती रही और अंततः उठ खड़ी हुई। मुझे विश्वास था कि पंडिताइन अगर पैदल निकली होंगी तो चौराहे के आगे नहीं पहुंची होंगी। मेरा कयास एकदम ठीक था। मैंने गाड़ी उनके ठीक बगल में रोककर दरवाजा खोल दिया और कहा आइए।”
वह संकोच से भर उठीं। बोलीं “बिन्ना। तुम कायको तकलीफ करत हो। हम तो रोजई पैदल जात हैं।”
“रोज की बात छोड़िए। आज हम आपको घर छोड़ेंगे। जल्दी कीजिए। मैं बीच सड़क पर गाड़ी ज्यादा देर खड़ी नहीं कर पाऊंगी।”
अपने को समेटती-सी, वह बड़ी शालीनता से, संकोच से, मेरे बगल में आकर बैठ गईं। मैंने उन्हें सहज होने के लिए कुछ समय दिया, फिर पूछा-“यहां कब से हैं?”
“यही कोई तीनेक महीना से । ”
“दिन भर रहती हैं?”
“हां, दस बजे आत हैं। ई टेम वापसी होत हैं।”
“खाना-पीना?”
“खाकर आत हैं। पानी तक अपने साथ में लात हैं।” उन्होंने थैली में रखी बोतल दिखाई।
मैं कुछ देर चुप रही फिर कहा- “यहां आने के बाद पंडित जी के बारे में सुना। बहुत दुःख हुआ।”
उत्तर में उन्होंने आंचल आंखों से लगा लिया।
“आपने बहुत सेवा की उनकी । यह समझ लीजिए कि आपकी बदौलत ही वे इतना जी गए। नहीं तो पंद्रह-बीस साल बिस्तर पर गुजारना हंसी-खेल नहीं है। ”
“वे और दस साल बने रहते तऊ हम उनकी सेवा करते, पर का करें, तकदीर ही खोटी थी। ”
“देखिए आपने इतनी सेवा की है …..”
“अरे का सेवा की है,” उन्होंने तड़पकर कहा – “सेवा को का फल मिलो हमें। भगवानजी ने हमारी गोद सूनी रखी, हमने कछु नहीं कही पर भगवानजी ने ये भोतई गलत करी हमारे साथ | हमारी मांग सूनी कर दी । ”
उनकी वाणी का क्रंदन मुझे भीतर तक कंपा गया। मैंने समझाइश देते हुए कहा- “कैसी बातें कर रही हैं आप। भला आप चली जातीं तो उनकी सेवा कौन उन्हें ऐसी हालत में छोड़कर चैन से मर भी नहीं पाती, समझीं! आप तो ईश्वर को धन्यवाद दीजिए कि उनके कष्टों का आपके रहते अंत हो गया। आप भी आखिर कितने दिन सेवा करतीं। आपकी भी तो उम्र हो चली है।”
उन्होंने उसांस भरकर कहा-“वे कैसेऊ हते बिन्ना पर वे हते तो हमाओ सुहाग हती, इज्जत हती। कोऊ के जूठे बरतन उठावे की जरूरत तो ना थी।”
“ मैं इतनी देर से यही सोच रही थी कि आपने ये नौकरी क्यों पकड़ ली?”
“दो जून कछु पेट में डालवे को तो चइये न!”
“इससे पहले तो आप दो जनों का पेट भरती थीं। पंडित जी का दवा-दारू अलग। अब अकेले का भी गुजारा नहीं होता?”
उन्होंने फिर एक उसांस भरी-“तब की बात और थी बिन्ना। मोहल्ले में कहूं भी सुहागिनें होतीं तो हमें बुलौआ आता। दान-दच्छिना, चीज-बस्त मिलती। तीज-त्योहार पर बहू-बेटियां कथा बांचने बुला लेतीं। पांच-दस रुपया से पैर पड़ लेतीं। कहूं सुहागन की पाठ (श्राद्ध) होती तो हमें न्योता मिलतो। साड़ी गाड़ी, चीज-बस्त, दान-दच्छिना, सीधा-सबई मिलत हतो। अब का धरो है-मावस पूनो पे पंडिज्जी के नाम से सीधा आवत हतो सो भी बंद हो गओ। ”
मैं हैरान रह गई। उस अपाहिज, बीमार आदमी का अस्तित्व इस औरत के लिए कितना बड़ा संबंध था-मानसिक भी और आर्थिक भी। उस एक व्यक्ति के अवसान के साथ इसका अपना वजूद भी एक शून्य में तबदील हो गया है। और उस महाशून्य भरने के लिए बेचारी दूसरों की जूठी कप-प्लेट धोने के लिए मजबूर हो गई।
महाशून्य – साहित्यकार मालती जोशी की रचना