मानसिक स्वास्थ्य आपके जीवन के हर पहलू को प्रभावित करता हैं,यह एक छोटा मुद्दा नहीं हैं जिसे आप एक बॉक्स में रख सकतें हैं । – शैनेन पर्शेर
हर साल 10 अक्टूबर को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पूरे विश्व में मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता हैं जिसका उद्देश्य Mental disorder के प्रति लोगों को जागरूक करना, मानसिक विकारों का सही ईलाज उपलब्ध कराना, शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य में तालमेल बिठाना आदि हैं।
सन् 1992 में WHO का ध्यान लोगों के बिगड़ते मानसिक स्वास्थ्य की भयावाहता की ओर गया जिसके बाद से ही विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस की शुरुआत हुई। जैसा की उम्मीद थी इस पहल के बाद लोग मानसिक स्वास्थ्य के विषय में अधिक सतर्क हो गए, कई देशों ने तरह-तरह की स्वास्थ्य योजनाएं शुरू की भारत भी उनमे से एक हैं, लेकिन भारत में अभी भी जागरूकता से ज्यादा अंधविश्वास व्याप्त हैं, जो पढ़े लिखें लोग हैं उनमे से कुछ तो समाज के डर से अपना इलाज नहीं करवाते ताकि कोई उन्हें पागल ना कहे, कुछ स्वीकारते ही नहीं की वे बीमार हैं जबकि अगर आप ठीक होना चाहते हैं तो पहले आपको मानना होगा की आप बीमार हैं, और कुछ तो अपनी बीमारी स्वीकारते हैं परंतु उन तक संसाधन की पहुँच नहीं हैं। ऐसे ही कुछ अन्य कारणों की वजह से भारत देश मानसिक स्वस्थता में बहुत पीछे चल रहा हैं। जिसकी वजह से भारत में कुछ 19 करोड़ लोग किसी ना किसी Mental disorders से जूझ रहें हैं, हर 8 में से एक इंसान को कोई ना कोई मानसिक समस्या बनी हुई हैं। वहीं अंतराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो 2019 में दुनियाभर के 7 लाख 3 हज़ार लोगों ने आत्महत्या की क्योंकि वो मानसिक तनाव को झेल नहीं पाएं। Mental disorder की वजह से ही हर साल दुनिया के लगभग 60 हज़ार युवा आत्महत्या का रास्ता चुनते हैं जिनकी उम्र 18-35 तक की होती हैं। Covid की वजह से भी लाखों लोगों की Mental health बुरी तरह प्रभावित हुई हैं और Suicide case भी बड़े हैं। ये कुछ आंकड़े हैं ये बताने के लिए की मानसिक स्वास्थ्य हम लोगों के लिए कितना जरुरी हैं।
आशा हैं तब भी जब आपका दिमाग सोचता हैं कि नहीं हैं। -जॉन ग्रीन।
इतना जरुरी होने के बाद भी हमारे यहाँ इसे Serious नहीं लिया जाता। शहर में तो स्थिति फिर भी थोड़ी संभली हुई हैं गाँवों की तो पूछिए ही मत। ग्रामीण क्षेत्र में हर मानसिक बीमारी का मतलब देवी-देवता या भूत-प्रेत निकल के आता है, गाँव में तो मानसिक बीमारी की कोई मानसिकता ही नहीं हैं। तनाव, चिंता या किसी प्रकार के डिसऑर्डर का शिकार होने का सीधा मतलब होता हैं कि ” फलां की बहू या बेटा या बेटी पागल हो गई हैं या उसपर देवी मैया आ रहीं हैं।” कभी-कभी लोग उन्हीं देवी मैय्या के जयकारे लगाने लगते हैं या कभी-कभी उससे बच कर निकल जाते हैं और दूर खड़े हो तमाशा देखते हैं। इलाज के नाम पर ऐसे मरीजों को माथे पर भभूत लगाकर या कोई मन्त्र पढ़कर शांत किया जाता हैं। जैसा कि पिछले दिनों आपने देखा ही होगा कि केरल और उत्तराखण्ड के कुछ गाँव में लड़कियों के एक साथ( एक दूसरे को देखकर) बेहोश होने और शैतान का साया होने पर उन्हें भभूत लगाकर ठीक किया जा रहा था किसी ने भी आगे आकर खुल के ये नहीं कहा कि मामला मास हिस्टीरिया का हैं और ना ज्यादा दिनों तक लोगों ने ध्यान ही दिया। खैर!
ये खबर चर्चा में आयी क्योंकि इसमें समूह में बीमारी दिखी वो भी स्कूल या भीड़भाड़ वाली जगह पर लेकिन ये एक दो दिन चलने वाली बीमारी नहीं हैं ऐसा किसी ना किसी गाँव में किसी ना किसी के साथ आए दिन होता रहता हैं, लेकिन उस पर इतनी चर्चा नहीं होती क्योंकि वो किसी एक की बात होती हैं और घर के अंदर होती हैं।परंतु जब आप ग्रामीण क्षेत्र का हर घर झाँकने की कोशिश करेंगे तो पाएंगे की हिस्टीरिया के लगभग 3-4 मरीज अपनी किस्मत को बैठे रो रहें हैं कि उन्होंने आखिर किस देवी या किस देवता को रुष्ठ किया हैं जो उनके साथ ऐसा हो रहा हैं? लेकिन असलियत ये हैं कि उन्होंने किसी देवी या देवता को नहीं बल्कि खुद को रुष्ठ किया होता हैं क्योंकि ये बीमारी तभी होती हैं जब व्यक्ति उपेक्षित किया जाता हैं, अपनी इच्छाएं दबाता हैं सबसे ज्यादा इसकी शिकार महिलाएं होती हैं क्यों? ये तो आप जान ही सकते हैं अब। सिर्फ हिस्टीरिया ही नहीं बल्कि postpartum disorder, बाइपोलर डिसऑर्डर, एंजायटी डिसऑर्डर और डिप्रेशन के मरीज भी आपको गाँव में मिलेंगे,लेकिन इन सब बीमारियों का इलाज सिर्फ एक ही होगा झाड़-फूंक, तन्त्र-मन्त्र। तकलीफ और दिक्कत के नाम पर इनके बाल पकड़ कर सिर्फ इतना ही पूछा जाता हैं ” बता तू कौन हैं?” जैसे मरीज के अंदर से आवाज़ आ जाएगी कि मैं बाइपोलर डिसऑर्डर हूँ, या हिस्टीरिया हूँ या मैं अवसाद हूँ!” मरीज को तब तक Interrogate किया जाता हैं जब तक वो ये ना बोल दे कि मैं फलां-फलां( मर चुका कोई रिश्तेदार, पड़ोसी वगैरह) हूँ, जब तक वो अपना नाम लेता रहता है तब तक उसे मार पड़ती रहती हैं। इन सब के बाद भी जिन मरीजों की हालत में सुधार नहीं होता उन्हें बालाजी( राजस्थान ) ले जाया जाता हैं क्योंकि गाँव के लोग मानते हैं कि बालाजी( हनुमान) भूत को पकड़ के वहीं बंधक बना लेते हैं इसीलिए वहाँ किसी फिल्म अभिनेता के घर के बाहर लगी भीड़ से 3गुनी ज्यादा भीड़ होती हैं, इसीसे आप सोच सकते हैं की प्रतिदिन वहाँ कितने प्रेतों को पकड़ा जाता होगा! और उन प्रेतों को पकड़ने के लिए, कितने ही शरीरों को जख्मी किया जाता होगा कोड़े से मार- मार के। इसके बाद भी अगर बीमारी ठीक ना हुई तो उसको उसी के हाल पर छोड़ दिया जाता हैं। किसी के कहे-कहाये अगर मरीज को किसी डॉक्टर को दिखाया भी जाता हैं तो वो मनोचिकित्सक या काउन्सलर नहीं होता,बल्कि न्यूरोसर्जन, न्यूरोफिजिशियन जैसे डॉक्टर होतें हैं क्योंकि साइकैट्रिस्ट या साइकोलोजिस्ट नाम के किसी भी डॉक्टर को उन्होंने आज तक सुना ही नहीं, सुने भी कैसे अपने यहाँ 1 करोड़ की आबादी पर मात्र 30 ही साइकैट्रिस्ट हैं जिनकी पहुँच गाँव की आबादी तक कतई नहीं हैं।
लेकिन इन सब के बाद भी स्वास्थ्य एजेंसियों का ध्यान गांव के लोगों ही मानसिक स्थिति पे नहीं जाता ऐसा लगता हैं कि उन्हें लगता हैं कि या तो गाँव वालों के पास दिमाग नहीं हैं और अगर है भी तो उसमें कोई बीमारी नहीं हैं। कोई सामाजिक संस्था भी आगे बढ़कर गांव के लोगों को मानसिक स्वास्थ्य के विषय पर जागरूक करती नहीं दिखती। कोई भी गाँव में इस बात का साइंटिफिक कारण बताने नहीं आ रहा कि डिप्रेशन जैसी बीमारी का शिकार अधिकतर महिलाएं क्यों हो रही हैं? जिसे देवी-देवता या भूत-प्रेत समझा जा रहा हैं ये वो नहीं हैं!, कोई ये नहीं बताता कि इरेगुलर पीरियड्स, पीरियड क्रैम्प्स, और मूड स्विंग की वजह से लड़कियां दर्द से गुजरती हैं ऐसे में भी जब उन्हें आराम नहीं दिया जाता उनका ख्याल नहीं रखा जाता, उन्हें उपेक्षित कर दिया जाता हैं, तो उनका गुस्सा हो जाना या किसी मानसिक समस्या का शिकार हो जाना लाजमी हैं वो कोई देवी मैय्या नहीं होती उसके शरीर के अंदर घुसी हुई बल्कि उसके दिमाग में सालों से घूम रहा सवालों का और गुस्से का बंडल होता हैं जो सबके सामने बिखरने को तैयार हो चुका होता हैं, कोई ये नहीं बताता कि बहू को मुन्ने के जनम के बाद किसी भूत-प्रेत ने नहीं जकड़ा बल्कि वो उस नए मेहमान को दिल से स्वीकार नहीं कर पा रही हैं, उस नन्हे जीव से उसे गुस्सा और डर लग रहा हैं, नए रूप में सहज ना हो पाने की वजह से उसके दिल में तरह-तरह के ख्याल आ रहें हैं, कोई ये नहीं बताने आता कि मरीज जो बोल रहा हैं या जो उसकी असामान्य शारीरिक गतिविधि हैं वो मिर्गी नहीं बल्कि हिस्टीरिया हैं , वो जो सुनी-अनसुनी बातें बोल रहा हैं तो उसके अंदर उसके दादा या नाना नहीं आएं हैं बल्कि Subconscious mind काम कर रहा हैं वहाँ पर। कोई भी संस्था या समूह ये बताने नहीं आता की लड़का अगर लोगों पर चिल्ला रहा हैं, चीख कर रो रहा हैं, उल्टा सीधा बक रहा हैं तो वो पागल नहीं बल्कि अवसाद में है।
जब शहर के किसी व्यक्ति को कुछ जानकारी चाहिए होती हैं तो वो गूगल कर लेता हैं, कि इस मानसिक बीमारी का कारण ये हैं लेकिन गांव में इतनी फ़ास्ट टेक्नोलॉजी नहीं होती और ना ही शिक्षा/जागरूकता होती हैं इतनी ज्यादा की इन सब मिथकों के पीछे की कोई हकीकत पता कर सके। अन्य स्वास्थ्य योजनाओं में ग्रामीण क्षेत्र को हाशिए पर रखा गया है लेकिन मानसिक स्वास्थ्य प्रबंधन योजना में तो ग्रामीण क्षेत्र को हाशिये से लटका दिया गया हैं और इतनी बुरी तरह लटकाया गया हैं की अगर वह हाशिया का किनारा पकड़ के ऊपर भी आना चाहे तो किसी न किसी से उसके हाथ बुरी तरह कूंच जाएगे इसीलिए वो लटका हैं लटका ही रहने दो!
मानसिक स्वास्थ्य उतना ही महत्वपूर्ण हैं जितना की शारीरिक ये समर्थन की सामान गुणवत्ता का अधिकार हैं। – केट मिडिलटन
Aaj 3 horse disordar mansick aawsad ect ki stedy kiya,good sandesh. Hai,fallow me, thinks
अच्छी जानकारी 👍keep it up
good post awa ji