दोहा, रोला, सोरठा एवं कुण्डलिया, छंद की परिभाषा,छंद के भेद,प्रमुख छंदों का परिचय
छंद की परिभाषा ( chhand ki paribhasha)
अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रागणना तथा यति-गति से संबद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना ‘छंद’ कहलाती है। ‘छंद’ की प्रथम चर्चा ‘ऋग्वेद’ में हुई है। यदि गद्य का नियामक व्याकरण है, तो कविता का छंदशास्त्र। छंद पद्य की रचना का मानक है और इसी के अनुसार पद्य की सृष्टि होती है।
पद्यरचना का समुचित ज्ञान ‘छंदशास्त्र’ का अध्ययन किए बिना नहीं होता। छंद हृदय की सौंदर्यभावना जागरित करते हैं। छंदोबद्ध कथन में एक विचित्र प्रकार का आह्लाद रहता है, जो आप ही जगता है। तुक छंद का प्राण है-यही हमारी आनंद भावना को प्रेरित करती है। गद्य में शुष्कता रहती है और छंद में भाव की तरलता। यही कारण है कि गद्य की अपेक्षा छंदोबद्ध पद्य हमें अधिक भाता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार,” छोटी छोटी सार्थक ध्वनियों के प्रवाहपूर्ण सामंजस्य का नाम छंद है।”
छंद के भेद ( Chhand ke Bhed)
वर्ण और मात्रा के विचार से छंद के चार भेद हैं-(१) वर्णिक छंद, (२) वर्णिक वृत्त,(३) मात्रिक छंद और (४) मुक्तछंद।
१. वर्णिक छंद – केवल वर्णगणना के आधर पर रचा गया छंद ‘वर्णिक छंद’ कहलाता है। ‘वृत्तों’ की तरह इसमें लघु-गुरु का क्रम निश्चित नहीं होता, केवल वर्णसंख्या ही निर्धारित रहती है और इसमें चार चरणों का होना भी अनिवार्य नहीं। वर्णिक छंदों के दो भेद हैं— (१) साधारण और (२) दंडक।
१ से २६ वर्ण तक के चरण या पाद रखनेवाले वर्णिक छंद ‘साधारण’ होते हैं और इससे अधिक वाले दंडक। हिंदी का सुपरिचित छंद ‘घनाक्षरी’ (कवित्त) और उसकी ‘रूप’ तथा ‘देव’ आदि जातियाँ ‘दंडक’ में आती हैं, क्योंकि ‘घनाक्षरी’ में ३१ वर्ण (सोलहवें और पंद्रहवें वर्ण पर यति और अंत में लघु-गुरु), ‘रूपघनाक्षरी’ में ३२ वर्ण (सोलहवें-सोलहवें वर्ण या प्रत्येक आठवें वर्ण पर यति)। देव कवि द्वारा प्रयुक्त ‘देवघनाक्षरी’ में ३३ वर्ण (८, ८, ८, ९वें पर यति और अंतिम दोनों वर्ण लघु) होते हैं।
२. वर्णिक वृत्त-वृत्त उस समछंद को कहते हैं, जिसमें चार समान चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में आनेवाले वर्णों का लघु-गुरु-क्रम सुनिश्चित रहता है। गणों में वर्णों का बँधा होना प्रमुख लक्षण होने के कारण इसे वर्णिक वृत्त, गणबद्ध या गणात्मक छंद भी कहते हैं।
३. मात्रिक छंद – मात्रा की गणना पर आधृत छंद ‘मात्रिक छंद’ कहलाता है। इसमें वर्णिक छंद के विपरीत, वर्णों की संख्या भिन्न हो सकती है और वर्णिक वृत्त के अनुसार यह गणबद्ध भी नहीं है, बल्कि यह गणपद्धति या वर्णसंख्या को छोड़कर केवल चरण की कुल मात्रा संख्या के आधार ही पर नियमित है। ‘दोहा’ और ‘चौपाई’ आदि छंद ‘मात्रिक
छंद’ में गिने जाते हैं। ‘दोहा’ के प्रथम-तृतीय चरण में १३ मात्राएँ और द्वितीय-चतुर्थ में ११ मात्राएँ होती हैं।
जैसे—
प्रथम चरण=श्री गुरु चरन सरोज रज=१३ मात्राएँ
द्वितीय चरण=निज मन मुकुर सुधार=११ मात्राएँ
तृतीय चरण= बरनौ रघुबर विमल जस= १३ मात्राएँ
चतुर्थ चरण=जो दायक फल चार=११ मात्राएँ
उपर्युक्त दोहे के प्रथम चरण में ११ वर्ण और तृतीय चरण में १२ वर्ण हैं जबकि कुल मात्राएँ गिनने पर १३-१३ मात्राएँ ही दोनों चरणों में होती हैं। गण देखने पर पहले चरण में भगण, नगण, जगण और दो लघु तथा तीसरे चरण में सगण, नगण, नगण, नगण हैं। ‘भावित बंद’ के चणों में मात्रा का ही साम्य होता है न कि वर्णों या गणों का।
प्रमुख छंदों का परिचय ( Pramukh chhandon ka parichay)
१. चौपाई – यह मात्रिक सम छंद है। इसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ होती हैं। चरण के अंत में जगण (151) और तगण (551) का आना वर्जित है। तुक पहले चरण की दूसरे से और तीसरे की चौथे से मिलती है। यति प्रत्येक चरण के अंत में होती है।
उदाहरणार्थ- निज नूतन मंगल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं।।
बड़े भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुनगन गावन लागे।।
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गुरु पद रज मृदु मंजुल मंजन। नयन अमिय दृग दोष विभंजन।।
तेहि करि विमल विवेक विलोचन। बरनउँ रामचरित भवमोचन ।।
2. रोला- यह मात्रिक सम छंद है। इसके प्रत्येक चरण में २४ मात्राएँ होती हैं। इसके प्रत्येक चरण में ११ और १३ मात्राओं पर यति ही अधिक प्रचलित है। प्रत्येक चरण के अंत में दो गुरु या दो लघु वर्ण होते हैं। दो-दो चरणों में तुक आवश्यक है। उदाहरणार्थ-
जो जगहित पर प्राण निछावर है कर पाता।
जिसका तन है किसी लोकहित में लग जाता ।।
३. हरिगीतिका- यह मात्रिक सम छंद है। इस छंद के प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती
हैं। १६ और १२ मात्राओं पर यति तथा अंत में लघु-गुरु का प्रयोग ही अधिक प्रचलित है।
उदाहरणार्थ-
कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए।
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए।।
४. बरवै – यह मात्रिक अर्द्धसम छंद है। इस छंद के विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में १२ और सम चरणों (दूसरे और चौथे) में ७ मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में जगण या तगण आने से इस छंद में मिठास बढ़ती है। यति प्रत्येक चरण के अंत में होती है।
जैसे-
वाम अंग शिव शोभित, शिवा उदार ।
सरद सुवारिद में जनु, तड़ित बिहार ।।
५. दोहा– यह मात्रिक अर्द्धसम छंद है। इस छंद के विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में १३ मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय और चतुर्थ) में ११ मात्राएँ होती हैं। यति चरण के अंत में होती है। विषम चरणों के आदि में जगण नहीं होना चाहिए। सम चरणों के अंत में
लघु होना चाहिए। तुक सम चरणों में होनी चाहिए। जैसे—
श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधार।
बरनौ रघुवर विमल जस, जो दायक फल चार।।
६. सोरठा-यह मात्रिक अर्द्धसम छंद है। यह दोहे का उलटा, अर्थात दोहे के द्वितीय चरण को प्रथम और प्रथम को द्वितीय तथा तृतीय को चतुर्थ और चतुर्थ को तृतीय कर देने से बन जाता है। इस छंद के विषम चरणों में ११ मात्राएँ और सम चरणों में १३ मात्राएँ होती है। तुक प्रथम और तृतीय चरणों में होती है। उदाहरणार्थ-
निज मन मुकुर सुधार, श्री गुरु चरन सरोज रज।
जो दायक फल चार, बरनौ रघुबर विमल जस।।
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मूक होई वाचाल, पंगु चढे गिरिवर गहन।
जासु कृपा सु दयाल, द्रवहु सकल कलिमलदहन।।
७. कुंडलिया – यह मात्रिक विषम संयुक्त छंद है। इसके भी छप्पय की तरह छह चरण होते हैं। दोहा और रोला छंदों को मिलाने से यह छंद बनता है। इस छंद के प्रथम चरण की रचना दोहे में प्रथम और द्वितीय चरणों को मिलाकर होती है। फिर, दोहे के तृतीय और चतुर्थ चरण को मिलाने से इसका द्वितीय चरण बनता है। अंत में, रोले के चरण क्रमशः इसके तृतीय, चतुर्थ, पंचम और षष्ठ चरण बनते हैं।
दोहे का चौथा चरण रोले के प्रथम चरण में दुहराया जाता है और दोहे के प्रारंभ का शब्द रोले के अंत में आता है। यतियाँ दोहे और रोले वाली ही रहती हैं। एक उदाहरण लीजिए-
दौलत पाय न कीजिए, सपने में अभिमान,
चंचल जल दिन चारि को, ठाँउ न रहत निदान।।
ठाँउ न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै,
मीठे वचन सुनाय, विनय सबही की कीजै ।।
कह गिरिधर कविराय, अरे यह सब घर तौलत,
पाहुन निसि दिन चारि, रहत सब ही के दौलत।।
८. सवैया यह एक वर्णिक समवृत्त छंद है। इसके एक चरण में २२ से लेकर २६ तक अक्षर होते हैं। इसके कई भेद हैं। एक भेद मत्तगयंद सवैये का है। इसके प्रत्येक चरण में सात भगण (511) और अंत में दो गुरु वर्ण होते हैं। चारों चरणों में तुकांत होता है।
उदाहरण-
या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँपुर को तजि डारी,
आठहुँ सिद्धि नवौं निधि को सुख नंद की गाय चराय बिसारी
रसखानि कबौं इन आँखिन तें ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारी,
कोटिन वे कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर बारौं।