कुछ मिनटों से मेरी ओर ओर अपलक ताक रहे हैं। मैं हैरत में आकर देखता हूँ, उनकी पलकें एक बार भी नहीं झपकती हैं। इस बीच उनकी जीभ कई बार होंठों की फाँक से बाहर निकल चुकी है। उसके बाद उन्होंने फुसफुसाकर कहा, ‘बाबा बुला रहे हैं- बालकिशन! बालकिशन! बाबा बुला रहे हैं…. बालकिशन … बालकिशन…..!बाबा बुला रहें हैं. ….
उसके बाद उनका घुटना मुड़ गया। पहले वे घुटनों के बल बैठ गए। उसके बाद अपने शरीर को आगे की तरफ फैलाकर फर्श पर मुँह के बल पड़ गए और कुहनी के बल चलते हुए पलंग के नीचे चले गए। यह बात मेरी समझ में आ गई कि मेरा पूरा जिस्म पसीने से तर-बतर हो गया है। मेरे हाथ-पैर थर-थर काँप रहे हैं। खड़ा रहने में मैं अपने आपको असमर्थ पा रहा हूँ। धुर्जटि बाबू के बारे में जो दुश्चिता थी वह दूर हो गई है और अभी मैं जो कुछ महसूस कर रहा हूँ वह अविश्वास और आतंक से मिला-जुला एक डरावना भाव है।
मैं अपने कमरे में लौट आया। दरवाजे को बन्द कर मैंने चिटकनी लगा दी और फिर सिर से पैर तक कंबल से ढंक लिया। इसी हालत में कुछ देर तक पड़े रहने के बाद मेरे बदन की कँपकँपी दूर हुई और मेरे दिमाग ने सोचना शुरू किया। मामला कहाँ जा चुका है और अपनी आँखों के सामने जो कुछ घटित होते हुए देख चुका हूँ, उससे किस सिद्धान्त पर पहुँचा जा सकता है, इसपर मैंने एक बार सोचकर देखा । आज तीसरे पहर धुर्जटि बाबू ने इमली बाबा के पालतू नाग को पत्थर से मार दिया है। उसके बाद ही इमली बाबा ने धुर्जटि बाबू की ओर उँगली तानकर कहा थाएक बालकिशन चला गया तो हर्ज ही क्या है? उसकी जगह दूसरा बालकिशन चला आएगा। वह दूसरा बालकिशन कोई साँप होगा या आदमी ? या आदमी ही साँप बन जाएगा? धुर्जटि बाबू के सारे बदन में चकत्ते दाग किस चीज के जीभ का दाग क्या चीज है? यह क्या दो भागों में बँट जाने के पूर्व की हालत है? उनका शरीर इतना ठंडा क्यों था? वे पलंग पर सोने के बजाय पलंग के नीचे क्यों चले गए? खगम- भाग एक
अचानक बिजली की कौंध की तरह एक बात याद आ गई। खगम! धुर्जटि बाबू ने खगम के बारे में पूछा था । नाम जाना-पहचाना जैसा लग रहा था, मगर समझ में नहीं आया था। अब याद आया। बचपन में महाभारत की एक कहानी पढ़ी थी। खगम नाम के एक तपस्वी थे। उनके अभिशाप से उनके मित्र सहस्रपाद मुनि ढोंरा साँप हो गए थे । खगम – साँप- शाप… सबमें एक तारतम्य है। लेकिन वे ढोंरा साँप हो गए थे और धुर्जटि बाबू क्या…?
कोई मेरे दरवाजे को फिर से खटखटा रहा है। ऊपर के बजाय नीचे की तरफ खटखटा रहा है। चौखट के ठीक ऊपर। एक बार, दो बार, तीन बार । मैं बिस्तर से हटने का नाम नहीं लेता हूँ। मैं दरवाजा नहीं खोलूँगा। हाँ, अब नहीं खोलूँगा । आवाज थम जाती है। मैं साँस रोके सतर्क पड़ा हूँ। अब कानों में सिसकारी आती है। धीरे-धीरे वह सिसकारी दरवाजे से दूर सरक जाती है। अब मेरी छाती की धड़कन के अतिरिक्त किसी दूसरी चीज की आवाज नहीं आ रही है।
वह क्या है? चीं-चीं जैसी आवाज । एक तीखी परन्तु पतली चीख । चूहा है क्या? यहाँ चूहा है। पहली रात ही अपने कमरे के अन्दर देख चुका हूँ। दूसरे दिन जब लछमन से कहा तो वह रसोईघर से चूहेदानी में एक जिन्दा चूहा लाकर दिखा गया था। कहा था, ‘चूहे के साथ-साथ छछूंदर भी हैं।’ चीख आहिस्ता-आहिस्ता खत्म हो जाती है और सन्नाटा फिर से रेंगने लगता है। दस मिनट बीत चुके हैं। घड़ी देखता हूँ। पौने एक बज रहा है। पता नहीं, नींद कहाँ लापता हो गई है। खिड़की से बाहर के पेड़-पौधे दीख रहे हैं। चन्द्रमा शायद बीच आकाश में है। दरवाजा खोलने की आवाज होती है। धुर्जटि बाबू बरामदे पर जाने के लिए बगल के कमरे का दरवाजा खोल रहे हैं। मेरे कमरे में जिस तरफ खिड़की है, बरामदे पर जाने का दरवाजा उसी तरफ है। धुर्जटि बाबू के कमरे में भी यही स्थिति है। उतरकर बीस हाथ जाने के बाद ही पेड़-पौधे मिलने लगते हैं। धुर्जटि बाबू बरामदे पर निकल आए हैं। कहाँ जा रहे हैं वे? उनका क्या इरादा है? मैं अपलक खिड़की की ओर ताकता हूँ। सिसकारी की आवाज आ रही है। आवाज क्रमशः बढ़ती जा रही है। अब आवाज मेरी खिड़की के बाहर से आ रही है। सौभाग्य से खिड़की ढँकी हुई है वरना…
कोई चीज खिड़की के नीचे से ऊपर की तरफ आ रही है। थोड़ी दूर तक ऊपर आती है और फिर ठिठक जाती है। किसी का सिर है। लालटेन की धुंधली रोशनी में दो चमकती हुई पीली आँखें दिखाई पड़ रही हैं। वे आँखें एकटक मेरी ओर देख रही हैं। कुछ मिनटों तक इसी तरह रहने के बाद वह सिर एक कुत्ते की आवाज सुनते ही नीचे उतरकर कहीं लापता हो जाता है। कुत्ता भौंक रहा है। परित्राण की याचना-भरी एक चीख सुनाई पड़ती है। इसके बाद एक साहब की नींद से बोझिल आवाज की फटकार सुनाई पड़ती है। एक कातर कराह के साथ-साथ कुत्ते की आवाज थम जाती है। उसके बाद कोई आवाज नहीं आती है। मैं लगभग दस मिनटों तक अपनी इन्द्रियों को सतर्क रखकर लेटा रहा। कानों में बार-बार आज की सुनी हुई कविता की पंक्तियाँ आ रही हैं- साँप की भाषा… साँप की सिसकारी फिस-फिस-फिस! बालकिशन का विषम विष फिस-फिस-फिस! धीरे-धीरे वह कविता भी शून्य में खो जाती है। जड़ता और अवसन्नता का भाव मुझे नींद की ओर खींचकर ले जा रहा है। साहब की चिल्लाहट सुनकर मेरी नींद टूट गई। घड़ी देखने पर पता चला, छह बजने में दस मिनट बाकी हैं। लगता है, कुछ गड़बड़ी हुई है। जल्दी-जल्दी बदन पर एक गरम कपड़ा डालकर जब बाहर निकला तो गोरे लोगों से मुलाकात हुई। दो अमरीकी युवक हैं-पुकारू नाम ब्रूस और माइकेल । उन लोगों का पालतू कुत्ता कल रात मर गया। अपने कमरे में कुत्ते को रखकर वे सोए हुए थे। कमरे का दरवाजा खुला हुआ था। उन लोगों का खयाल है कि साँप या बिच्छू ने उसे काट लिया था। माइकेल की धारणा है कि बिच्छू होगा क्योंकि जाड़े के दिन में साँप बाहर नहीं निकलते।
कुत्ते के पीछे समय नष्ट न कर मैं बरामदे की दूसरी तरफ धुर्जटि बाबू के सामने पहुँचा। दरवाजा खुला हुआ है मगर कमरे में कोई नहीं है। लछमन हर रोज सुबह साढ़े पाँच बजे जगकर चूल्हा जलाता है और चाय के लिए पानी गरम करता है। उससे पूछने पर पता चला कि धुर्जटि बाबू पर उसकी नजर नहीं पड़ी है। मन में नाना प्रकार की आशंकाएँ जग रही हैं। चाहें जैसे भी हो, उन्हें खोजकर निकालना ही है। पैदल चलकर वे कितनी दूर जा सकते हैं। मगर जंगल में चारों तरफ खोज-पड़ताल करने पर भी उनका पता नहीं चला। साढ़े दस बजे जीप आई। मैंने ड्राइवर से कहा, ‘पोस्ट ऑफिस जाकर मुझे टेलीग्राम करना है। जब तक धुर्जटि बाबू से सम्बन्धित रहस्य का समाधान नहीं हो जाता है, भरतपुर से नहीं जाऊँगा।’
मंझले भैया को टेलीग्राम करने के बाद मैंने ट्रेन की टिकट एक दिन आगे के लिए बढ़वा ली और रेस्टहाउस लौट आया। वहाँ आने पर पता चला कि धुर्जटि बाबू के बारे में कोई खबर नहीं मिली है। दोनों अमरीकी इसी बीच कुत्ते को दफनाकर, बोरिया-बस्ता संभालकर वहाँ से रवाना हो चुके थे। दोपहर-भर मैं रेस्टहाउस के इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहा। मेरे कहे अनुसार जीप फिर तीसरे पहर आई। मेरे दिमाग में एक खयाल आया था। मन कह रहा था, उससे कोई नतीजा निकल सकता है। मैंने ड्राइवर से कहा, “इमली बाबा के पास चलो।”
कल जिस वक्त पहुँचा था आज भी लगभग उसी वक्त बाबा की कुटिया में पहुँचा। बाबा कल की तरह की धूनी रमाए बैठे थे। आज यहाँ और दो शिष्य हैं- एक वयस्क और दूसरा युवक मुझपर नजर पड़ते ही बाबा ने गरदन तिरछी कर नमस्कार किया। कल की उस भस्मकारी दृष्टि से आज की दृष्टि में कोई साम्य नहीं था। समय नष्ट न कर मैंने बाबा से सीधे सवाल किया कि कल मेरे साथ जो सज्जन आए थे, उनके बारे में वे कुछ बता सकते हैं या नहीं। बाबा के चेहरे पर प्रसन्नता उभर आई। बोले, ‘बता सकता हूँ। तुम्हारे दोस्त ने मेरी आशा पूरी कर दी है। वह मेरे बालकिशन को वापस ले आया है।’। इतनी देर के बाद बाबा के दाहिने रखी हुई पत्थर की एक कटोरी पर मेरी नजर पड़ी। उसमें जो सफेद रंग का तरल पदार्थ रखा है, वह दूध के अतिरिक्त कुछ और नहीं हो सकता है। मगर मैं साँप और दूध की कटोरी देखने के लिए इतनी दूर नहीं आया हूँ। मैं धुर्जटि प्रसाद बसु की खोज में आया हूँ। वे हवा में मिल नहीं . गए होंगे। उनके अस्तित्व का अगर कोई चिन्ह भी दीख जाता तो मैं बहुत कुछ निश्चिन्त हो पाता।
यह पहले भी देख चुका हूँ कि इमली बाबा आदमी के मन की बात समझ जाते हैं। गाँजे की चिलम से एक लम्बा कश लेकर उन्होंने चिलम अपने प्रौढ़ शिष्य की ओर बढ़ा दी और बोले, ‘अपने मित्र को तुम पहले के जैसे वापस नहीं पा सकोगे, हाँ, वह अपना स्मृति-चिन्ह रख गया है। वह स्मृति चिन्ह तुम्हें बालकिशन के डेरे से पचास कदम दाहिनी ओर मिलेगा। सावधानी से जाना, रास्ते में बहुतेरे काँटेदार पौधे हैं।’
बाबा के कहे अनुसार मैं बालकिशन के गड्ढे के पास गया। उसमें साँप है या नहीं, यह जानने का मुझमें अब तनिक भी कौतूहल नहीं है। आसमान के डूबते हुए सूर्य की ओर निहारता हुआ दक्खिन दिशा की ओर बढ़ता गया। पत्थर के ढोंके और काँटों के बीच से होता हुआ गिनकर पचास कदम जब आगे बढ़ा तो अर्जुन के एक पेड़ के तने के पास जिस चीज पर नजर पड़ी, उस किस्म की चीज कुछ मिनट पहले इमली बाबा की कुटिया में रस्सी पर टंगी हुई देख चुका हूँ। वह एक केंचुल थी। पूरी केंचुल पर चितकबरे दाग हैं। यह क्या साँप की केंचुल है? नहीं नहीं, बात ऐसी नहीं है । साँप का शरीर इतना चौड़ा कहाँ होता है? साँप के दोनों ओर से क्या दो हाथ और निचले हिस्से से दो पैर बाहर निकलते हैं?
दरअसल यह आदमी की केंचुल है। वह आदमी अब आदमी की शक्ल में नहीं रह गया है। अभी वह उस गड्ढे में कुण्डली मारकर लेटा है। वह अब नाग के रूप में है और उसके दाँतों में जहर है। लो, अब उसकी सिसकारी सुनाई पड़ रही है। सूर्य डूबने लगा है। इमली बाबा पुकार रहे हैं – बालकिशन…बालकिशन…बालकिशन…
Thanks for reading 🙏🙏
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