जब मैं कक्षा 5 में थी तो मेरा Friend circle काफी सिमित हुआ करता था कोई 5 दोस्त ही रहें होंगे मेरे, जिनमें भी गुफरान , अशरुन और नाजिया थीं मतलब मुस्लिम दोस्त ।
हाय! मुसलमान?…. अगर मुझे पता होता कि वो मुस्लिम हैं तो सच्ची मैं उनसे दोस्ती नहीं करती। लेकिन पता भी कैसे चलता क्योकि वो भी हिंदुओ जैसे ही थें। उनके भी दो हाथ थें , उनकी आवाज़ भी हमारी जैसी ही थीं और तो और उनकी सोच भी समान थी । एक और वजह ये भी थी जो मुख्य थी वह थी कि उस वक्त देश में इतना सांप्रदायिक माहौल भी नहीं था बात बे-बात हिन्दू-मुस्लिम की बात नहीं चलती थीं इतनी ज्यादा जितनी आजकल । तभी मुझे कक्षा 5 तक हिन्दु- मुस्लिम में अंतर ही नहीं पता चला जबकि आज के बच्चे शुरू से ही इतनी अहम बात जान गए और तो और धरना प्रदर्शन भी करने लगे हैं अपने अपने धर्म के लिए।
मैं कहना क्या चाहती हूँ अगर आपके मन में ये प्रश्न उठ रहा है तो उसका तुरंत समाधान ये है कि मैं कहना बस इतना चाहती हूँ कि मंदिर-मस्जिद तक तो ठीक था लेकिन स्कूलों में भी जाति-धर्म की एन्ट्री होना देश के लिए एक खतरनाक संकेत है,जहां बच्चों को सद्भावना, प्रेम,सहयोग को आधारशिला बनाकर उनका भविष्य बनाया जाता है वहाँ अगर कट्टरता, साम्प्रदायिकता का पाठ पढ़ाया जाने लगे तो क्या होगा?
कांग्रेस अध्यक्ष महोदय राहुल गांधी जी ने इसे लेकर बयान दिया की – ” लड़कियों को हिजाब पहनने की अनुमति ना देना उनके भविष्य से खिलवाड़ है ।” मुझे समझ नहीं आया कपड़े का एक टुकड़ा किसी का भविष्य कैसे निर्धारित कर सकता है? लेकिन मैं ये बात भी स्वीकारती हूँ कि धर्म की दीवारें इतनी मजबूत होतीं है कि कोई सभ्यता जब इनसे टकराती है तो नष्ट तक हो सकती हैं ऐसे में कुछ लडकियां कैसे इससे टकराती? और धर्म के दबाव में आ अगर जो कक्षा में हिजाब पहन कर आती तो क्या स्कूल की दीवारें इतनी कमज़ोर थी कि उनके हिजाब की टकराहट से उनमे दरारे आ जातीं?
मैं मानती हूँ कि स्कूल वो जगह है जहां सब समान होतें हैं इसीलिए मैं कर्नाटक के गृह मंत्री आरागा ज्ञानेन्द्र के बयान का समर्थन करती हूँ जिसमें उन्होंने कहा कि ” स्कूल में ना तो हिजाब पहनना चाहिए ना भगवा स्कार्फ , स्कूल वह जगह है जहां सब बच्चे समान है , सब भारत माँ के बच्चे हैं।”
लेकिन कोई धर्म अगर इसे नहीं मानता तो बजाय उसके समझाने के उसका विरोध करना उचित है? क्या हिन्दू छात्रों का इस तरह अपने सहपाठियों का विरोध करना चाहिए था कि उनसे बात करके उनकी समस्या सुनके उन्हें समझाना चाहिए था?
आपको क्या लगता है कि स्कूल के कुछ छात्र बिना किसी बाहरी स्रोत के ऐसा करने की सोच सकते है ? दिन-रात पढ़ाई में व्यस्त रहने वाले बच्चों को किसने बताया ये की हिन्दू-मुस्लिम में इतना अंतर होता हैं ? किसने कहा की पढ़ाई से ज्यादा धरम को महत्व दो? ये कौन है जो उन्हें साम्प्रदायिकता की कड़वी घुट्टी पिला रहा है? क्या वर्तमान राजनीति? सोशल मीडिया? न्यूज़ चैनल? आजकल जो देश का माहौल है वो? या कोई और…….?
बच्चों के बैग पर पहले से ही वज़न काफी था उसपर से साम्प्रदायिकता की एक और किताब बढ़ जाना क्या बच्चों का मानसिक संतुलन बनाए रखेगा? सोचिएगा इन बातों को बच्चों के भविष्य का सवाल है।