आप पढ़ रहें हैं प्रख्यात बांग्ला साहित्य के साहित्यकार सत्यजित रे की कहानी , ब्राउन साहब की कोठी। जो की एक सस्पेन्सिव,हॉरर स्टोरी हैं। सत्यजित रे को जितना कालजयी फिल्मों के लिए जाना जाता हैं,उतना ही नाम उनका भूतिया कहानी लिखने के लिए प्रसिद्ध हैं। यह दूसरी भूतिया कहानी है उनकी जो मैं आप तक पहुँचा रहीं हूँ ताकि आप भी उनकी कलम के कायल हो जाये। इस उम्मीद के साथ की आप भी कहानी पढ़ते समय उतने ही रोमांचित हो रहें होंगे जितनी मैं लिखते हुए। शुरू कर रही हूँ आगे की कहानी…..
👉 पढ़े ब्राउन साहब की कोठी का राज पार्ट 1
डायरी के आखिरी पन्ने पर लिखा है जो मुझे प्यार करता है, उसकी मृत्यु के बाद भी उसका प्यार अटूट रहता है, इस ज्ञान की प्राप्ति से मुझे चरम शान्ति मिली है।
बस, इतना ही। लेकिन अब सवाल उठता है-ब्राउन साहब की वह कोठी- बंगलौर के फ्रेजर टाउन का एवरग्रीन लॉज-अब है या नहीं, और वहाँ अब भी शाम के वक्त साइमन साहब के भूत का आगमन होता है या नहीं? मैं अगर उस कोटी में जाकर एक शाम गुजाएँ तो साइमन के भूत को देख पाऊँगा?
बंगलौर आने पर पहले दिन अनीक को इसके बारे में कुछ भी न कहा। उसकी ऐंबेसेडर गाड़ी से घूमकर पूरे बंगलौर शहर की परिक्रमा की यहाँ तक कि फ्रेजर टाउन को भी नहीं छोड़ा। बंगलौर सचमुच खुबसूरत जगह है, इसलिए इस शहर के बारे में खुशियाँ जाहिर करने में मुझे झिझक नहीं हुई। बंगलौर केवल खूबसूरत ही नहीं है, कलकत्ते से आने पर यह शान्त और कोलाहल शून्य शहर मुझे अयथार्थ सपनों के राज्य जैसा लगा।
अगले दिन रविवार था। सवेरे अनीक के बगीचे में रंगीन छतरी के तले बैठकर चाय पीते हुए मैंने ब्राउन साहब के सन्दर्भ में चर्चा की। सुनकर उसने चाय की प्याली बेंत की कुरसी पर रख दी और बोला, “देखो रंजन, जिस कोठी के बारे में तुमने चर्चा की वह शायद अब भी हो, एक सौ साल यों कोई ज्यादा अरसा नहीं है। तब हाँ, वहाँ जाकर अगर भूत देखने का इरादा है तो मैं इस काम में साथ नहीं दे सकता। अन्यथा मत लेना भाई, मैं हमेशा से जरा भावुक रहा हूँ यों ही मजे में हूँ। आजकल शहर में कोई उपद्रव नहीं है। भूत के पीछे दौड़ने का मतलब है जानबूझकर उपद्रव को न्योता देना । मैं इस काम में साथ नहीं दे सकता।’
अनीक की बातें सुनने पर लगा, बारह साल के दरमियान उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है। स्कूल में वह अवश्य ही डरपोक के नाम से बदनाम था। याद आया,एक बार हमारे क्लास के जयन्त और कुछ शरारती लड़कों ने मिलकर एक शाम बालीगंज के सर्कुलर रोड पर राइडिंग स्कूल के पास खुद को सिर से पैर तक सफेद कपड़े से ढंक कर उसे डरा दिया था। अनीक इस घटना के बाद दो दिन स्कूल नहीं आया था और अनीक के पिताजी ने हेडमास्टर वीरेश्वर बाबू के पास आकर घटना के सन्दर्भ में शिकायत की थी।
मैं इसके बारे में कुछ कहूँ कि इसके पहले ही अनीक अचानक बोल उठा,’अगर तुम्हें जाना ही है तो साथी का अभाव नहीं होगा।…आइए, मिस्टर बनर्जी।
मैंने पीछे की तरफ मुड़कर देखा। लगभग पैंतालीस साल के एक सज्जन अनीक के बगीचे के फाटक से प्रवेश कर हँसते हुए मेरी ओर आ रहे हैं। हट्टा-कट्टा शरीर,लगभग छह फीट ऊँचाई। पहनावे के रूप में सिलेटी रंग की हैंडलूम की पैंट और उस पर गाढ़े नीले रंग की टेरिलिन की बुशशर्ट, गले में काला-सफेद बूटेदार रेशमी मफलर ।
अनीक ने परिचय कराया, आप हैं मेरे मित्र रंजनसेन गुप्त और आप मिस्टर हृषिकेश बनर्जी।’
पता चला कि वे बंगलौर की एयरक्राफ्ट फैक्टरी में काम करते हैं। बहुत दिनों से बंगाल के बाहर हैं इसलिए उनके लहजे में गैर-बंगाली की छाप है साथ ही ढेरों अंग्रेजी शब्दों का व्यवहार करते हैं।
अनीक ने बेयरा को पुकारकर और एक प्याली चाय लाने का आदेश दिया और फिर सीधे ब्राउन साहब की कोठी के प्रसंग को छेड़ दिया। सुनकर उन्होंने ऐसा उहाका लगाया कि एक गिलहरी जो कुछ देर पहले से हमारी टेबल के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रही थी, अपनी पूँछ उठाकर देवदारु के एक वृक्ष के तने को पार कर एकबारगी ऊँची डाल पर चली गई।
‘गोस्ट्स ? गोस्ट्स? यू सीरियसली बिलीव इन गोस्ट्स? इस जमाने में भी ? इस युग में भी “
बनर्जी की हँसी का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। देखा, उनके दाँत सफेद और मजबूत हैं।
अनीक ने कहा, ‘चाहे जो भी हो मिस्टर बनर्जी – गोस्ट और नो गोस्ट –
वैसा अगर कोई मकान है और रंजन जबकि एक अजीब धारणा पाले हुए हैं तो उसके साथ किसी शाम आप वहाँ थोड़ी देर तक रह सकते हैं या नहीं, यही बताइए? वह कलकत्ते से आया है और मेरा गेस्ट है उसे में वहाँ अकेले नहीं जाने दूँगा। और सच कहूँ, मैं बहुत सावधान रहने वाला आदमी हूँ। अगर मैं उसे अपने साथ लेकर जाऊँ तो उसे सुविधा के बजाय असुविधा ही होगी।’
मिस्टर बनर्जी ने अपनी शर्ट की पॉकेट से एक तिरछा पाइप बाहर निकाला और उसमें तम्बाकू ठूंसते हुए कहा, “मुझे आपत्ति नहीं है। तब हाँ, मैं एक ही शर्त पर जा सकता हूँ-वह यह कि मैं अपने साथ एक के बदले दो आदमी ले जाऊँगा।”
अपनी बात समाप्त कर बनर्जी ने पुनः एक ठहाका लगाया और इस ठहाके के फलस्वरूप आसपास के पेड़ों से चार-पाँच किस्म के परिंदों की तीखी आवाज और पंखों की फड़फड़ाहट सुनाई पड़ी। अनीक का चेहरा हालाँकि ज़रा मलिन हो गया मगर वह मना नहीं कर सका।
‘कोठी का नाम क्या बताया?” बनर्जी ने पूछा।
‘एवरग्रीन लॉज ।’
‘फ्रेजर टाउन में?’
‘डायरी तो यही बताती है।’
‘हुँ’… उन्होंने पाइप से कश लिया, ‘फ्रेजर टाउन में साहबों की कुछ कोठियाँ हैं, कॉटेज टाइप की। एनी वे अगर जाना ही है तो देरी करने से क्या फायदा?
हाट एबाउट आज तीसरे पहर? यही चार बजे?”
इंजीनियर होने से क्या-मूड बिलकुल मिलिटरी मैन और साहब के जैसा है।
घड़ी देखकर ठीक चार बजे हृषिकेश बनर्जी अपनी मॉरिस माइनर कार लेकर आ धमके। जब गाड़ी में बैठा तो वे बोले, ‘साथ में क्या-क्या लिया ?”
अनीक ने फेहरिस्त की सूचना दी पाँच सेल का एक टार्च, छह मोमबत्तियाँ, फस्ट एड का बॉक्स, एक बड़े फ्लास्क में गरम कॉफी, एक बक्सा हम सैंडविच,एक पैकेट ताश, जमीन पर बिछाने के लिए एक चादर, मच्छरों को भगाने के लिए एक ट्यूब ऑडोमस ।
‘और अस्त्र-शस्त्र ?’ बनर्जी ने पूछा।
“भूत को किस हथियार से काबू में किया जाता है? क्यों रंजन, तुम्हारे साइमन का भूत क्या सॉलिड है?”
‘खैर,’ मिस्टर बनर्जी ने गाड़ी के दरवाजे को बन्द करते हुए कहा, ‘मेरे पास एक छोटा-सा आग्नेय अस्त्र है, इसलिए सॉलिड लिक्विड के बारे में चिन्ता करने की जरूरत नहीं है।
गाड़ी रवाना होने पर बनर्जी ने कहा,’एवरग्रीन लॉज की बात काल्पनिक नहीं है।
मैंने अवाक् होकर कहा, ‘आपने इस बीच पता भी लगा लिया?”
बनर्जी एक-एक कर दो साइकिल चालकों की बगल से गाड़ी बढ़ाते हुए बोले,’आइ एम ए बेरी मेथडिकल मैन, मिस्टर सेनगुप्त। जहाँ जाना है, वह जगह है या नहीं, इसके बारे में पहले से ही पता लगा लेना क्या उचित नहीं है? उस ओर श्रीनिवास देशमुख रहते हैं। हम एक ही साथ गोल्फ खेलते हैं। उनसे मेरी बहुत दिनों से जान-पहचान है। सुबह यहाँ से उन्हीं के घर पर गया था। उन्होंने बताया, एवरग्रीन नामक एक एकमंजिला कॉटेज लगभग पचास साल से खाली पड़ा है। मकान के बाहर एक बगीचा है, जहाँ लोग दस साल पहले तक पिकनिक करने जाया करते थे पर अब नहीं जाते। मकान बिलकुल निर्जन स्थान में है। पहले भी उस मकान में कोई एक लम्बे अरसे तक नहीं रहा है। तब हाँ, किसी ने हण्टर हाउस कहकर उसे बदनाम नहीं किया है। मकान के फर्नीचर बहुत पहले ही नीलाम हो चुके हैं।
उनमें से कुछ कर्नल मार्सल के मकान में हैं। वह एक रिटायर्ड आर्मी अफसर है।
और फ्रेजर टाउन में ही रहता है। सब कुछ सुनने के बाद लगता है, मिस्टर सेनगुप्त,हमें पिकनिक करके ही लौट आना पड़ेगा। अनीक ने ताश लाकर अच्छा ही किया है।
बंगलौर की साफ-सुथरी चौड़ी सड़क से गाड़ी से जाते-जाते लग रहा था, यह शहर भूत-प्रेत से इतना खाली है कि यहाँ भुतहा मकान के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
लेकिन उसके बाद ही मुझे ब्राउन साहब की डायरी की बात याद आ जाती थी। पागल हुए बिना आदमी इस तरह की अद्भुत बातें डायरी में क्यों लिखेगा?
साइमन भूत ‘को ब्राउन साहब ने खुद ही देखा है। एक बार नहीं, अनेकों बार।
वह भूत क्या हमें एक बार भी दिखाई न देगा?
मैं विलायत नहीं गया हूँ । परन्तु विलायत के कॉटेज की ढेरों तस्वीरें किताबों में देखी हैं। एवरग्रीन लॉज के सामने आने पर मुझे महसूस हुआ कि मैं सचमुच ही इंग्लैण्ड के ग्रामीण अंचल के एक पुराने परित्यक्त मकान के सामने आ गया हूँ।
कॉटेज के सामने ही बगीचा है। यहाँ अब फूलों की क्यारियों के बदले घास और झाड़-झंखाड़ हैं। लकड़ी के एक छोटे गेट (जिसे अंग्रेजी में विकेट कहते हैं) से होकर बगीचे के अन्दर जाना पड़ता है उस गेट पर एक फलक पर घर का नाम लिखा है। तब हाँ, शायद किसी पिकनिक करने वाले की जमात ने ही मजाक में एवरग्रीन शब्द के आगे एक ‘एब’ जोड़कर उसे ‘नेवरग्रीन’ बना दिया है।
हम गेट से प्रवेश कर मकान की तरफ बढ़ने लगे। चारों तरफ अगिनत पेड़-पौधे हैं। तीनेक युक्लिपटस के पेड़ हैं। बाकी जितने भी पेड़ हैं, उनका नाम मुझे मालूम नहीं। बंगलौर की हवा और पानी में ऐसा गुण है कि वहाँ किसी भी देश का पेड़ जिन्दा रह जाता है।
कॉटेज के सामने टाइल से छावनी किया हुआ पोर्टिको है। उसके टेढ़े-मेढे खम्भों से होती हुई लता ऊपर की ओर चली गई है। छावनी की बहुत-सी टाइलें गायब हैं, फलस्वरूप फाँक से आसमान दिखाई पड़ता है। सामने के दरवाजे का एक पल्ला टूटकर तिरछा पड़ा हुआ है। मकान के सामने के दरवाजे-खिड़कियों के कांच टूट
गए हैं। दीवार पर लोनी लगने के कारण ऐसी हालत हो गई है कि मकान का असली रंग क्या था, इसका पता लगाना मुश्किल है।
हम दरवाजे से मकान के अन्दर गये।
अन्दर जाते ही एक गलियारा मिला। पीछे की तरफ टूटी दीवार से एक कमरा दीख रहा है। हमारे दाहिने और बायें भी कमरे हैं। दाहिनी तरफ का ही कमरा बड़ा मालूम होता है। अन्दाज लगाया, यही बैठक रही होगी। फर्श पर विलायती कायदे से तख्ते लगे हैं, मगर एक भी तख्ता साबुत नहीं है। सावधानी से कदम रखना पड़ताहै और हर कदम पर खट्-खट् आवाज होती है।
हमने कमरे के अन्दर प्रवेश किया ।
खासा बड़ा कमरा है, फर्नीचर न रहने के कारण और भी सूना जैसा लगता। पश्चिम और उत्तर की तरफ खिड़कियों की कतार है। एक तरफ की खिड़की से गेट समेत बगीचा दीखता है, दूसरी तरफ की खिड़की से पेड़ों की कतार। क्या इन्हीं पेड़ों में से किसी पर वज्रपात हुआ था? साइमन उसी के नीचे खड़ा होगा और तत्काल उसकी मौत हो गई होगी। सोचते ही रोंगटे खड़े हो गए।
अब मैंने दक्खिन तरफ की बिना खिड़की वाली दीवार की ओर देखा। बायें कोने में फायरप्लेस है। इसी फायरप्लेस के पास ही साइमन की प्रिय कुरसी रही होगी।
कमरे की सीलिंग की ओर देखने पर मकड़ियों की जालियों को झूलते हुए पाया । किसी जमाने में एवरग्रीन लॉज खूबसूरत रहा होगा, अब उसकी हालत शोचनीय हो गई है। मिस्टर बैनर्जी शुरू में ‘लाला-ला’ करते हुए विलायती स्वर में आलाप ले रहे थे, अब उन्होंने पाइप सुलगाई और कहा, ‘आप लोग कौन-सा खेल खेलना जानतेहैं? ब्रिज या पोकर या रमी?’
अनीक अपने हाथ के सरोसामान को फर्श पर रखने के बाद चादर बिछाकर बैठने जा रहा था, तभी एक आवाज सुनाई दी। किसी दूसरे कमरे में कोई आदमी जूता पहनकर चहल कदमी कर रहा है।
अनीक की तरफ देखा तो उसका चेहरा उतरा हुआ पाया।पैरों की आवाज थम गई। मिस्टर बैनर्जी अचानक अपने मुँह से पाइप हटाकर जोरों से चिल्ला उठे, ‘इज एनी बॉडी देयर?’ और हम तीनों गलियारे की तरफ बढ़ गए। अनीक अपने हाथ से मेरे कोट की आस्तीन थामे हुए था।
जूते की आवाज फिर से शुरू हुई। हम जैसे ही बाहरी गलियारे में पहुँचे, दूसरी तरफ के कमरे से एक आदमी बाहर निकलकर आया और हम पर नजर पड़ते ही ठिठककर खड़ा हो गया। वह एक भारतीय ही था चेहरा दाढ़ी और मूँछों से भरा रहने पर भी वह भला और शिक्षित जैसा लगा। उसने कहा, ‘हेलो।’
हम क्या कहें यह समझ में नहीं आ रहा था कि तभी अजनबी ने खुद ही हमारे कौतूहल का निवारण कर दिया। ‘मेरा नाम वेंकटेश है। आइ एम ए पेन्टर आप लोग इस मकान के मालिक हैं या खरीदार?’
बैनर्जी ने हँसते हुए कहा, ‘दोनों में से एक भी नहीं। हम चक्कर लगाते-लगाते यूँ ही यहाँ पहुँच गए हैं।’
‘आई सी मेरा खयाल था। अगर यह मकान मुझे मिल जाता तो अपने काम के लिए एक स्टूडियो बना लेता। टूटा-फूटा रहने पर भी मुझे एतराज नहीं है। मालिक कौन है, इसके बारे में आप लोगों को कोई जानकारी नहीं है?”
‘जी नहीं। सॉरी। आप कर्नल मार्सर के यहाँ जाकर खोज-खबर ले सकते हैं। सामने का रास्ता पकड़कर बायीं ओर जाइए। जाने में पाँच मिनट लगेगा।’
‘थैंक्यू’ कहकर मिस्टर वेंकटेश वहाँ से चले गए।
गेट खोलने और बन्द करने के बाद मिस्टर बैनर्जी ने पहले की तरह ही एक ठहाका लगाते हुए कहा, ‘मिस्टन सेनगुप्त, यह आदमी आपके साइमन या उस किस्म का कोई भूत वगैरह नहीं है।’
मैंने हँसकर कहा, ‘कुल मिलाकर अभी सवा पाँच ही बजे हैं, इस बीच आप भूत की उम्मीद कैसे करते हैं? और ये भले आदमी अगर भूत थे तो उन्नीसवीं सदी के नहीं होंगे। क्योंकि वैसा होने पर उनका लिबास और ही तरह का होता।’
इस बीच हम बैठक में लौट आए हैं। अनीक ने फर्श पर बिछी चादर पर बैठते हुए कहा, ‘झूठमूठ की कल्पना पालने का मतलब है नर्वसनेस बढ़ाना। इससे बेहतर तो यही है कि हम ताश खेलें ।
‘पहले कुछ मोमबत्तियाँ जला लो,’ बैनर्जी ने कहा, ‘यहाँ शाम एकाएक उत्तर आती है।’
दो मोमबत्तियाँ जलाकर हमने उन्हें लकड़ी के फर्श पर खड़ा कर दिया। उसके बाद फ्लास्क के ढक्कन में कॉफी डाल-डालकर बारी-बारी से पी। एक बात मेरे मन में बहुत देर से घुमड़ रही थी, उसे बिना कहे रह नहीं सका। भूत का नशा मेरे सिर पर कितना सवार हो गया है। यह तथ्य मेरी बात से ही जाहिर होगा। बैनर्जी की ओर मुखातिब होकर मैंने कहा, ‘आपने बताया था कि कर्नल मार्सर ने यहाँ के कुछ फर्नीचर खरीदे थे। वे जब इतने निकट हैं तो उनसे क्या एक बात दरियाफ्त की जा सकती है?”
‘क्या ?’ बैनर्जी ने पूछा ।
‘एक खास तरह की हाइबैक्ड चेयर के बारे में?’
अनीक ने तनिक ऊब के साथ कहा,’अचानक हाइबैक्ड चेयर के बारे में
पूछकर क्या होगा?’
‘नहीं, यानी ब्राउन साहब ने लिखा है वह साइमन की बड़ी ही प्यारी कुरसी थी। भूत होने के बाद भी वह उसी पर बैठता था और वह फायरप्लेस के पास रखी रहती थी। हो सकता है, उसे यहाँ लाकर रखने से …
अनीक ने मेरी बात काटते हुए कहा, ‘तुम बैनर्जी साहब की उस मॉरिस कार पर हाइबैक्ड चेयर ले आओगे या हम तीनों ही उसे कन्धे पर ढोकर ले आएँ? तुम्हारा दिमाग क्या खराब हो गया है?’
बैनर्जी ने हाथ उठाकर हम दोनों को चुप कराया और कहा, ‘कर्नल मार्सर ने जो कुछ खरीदा है उसमें उस किस्म की कुरसी नहीं है, यह बात मुझे मालूम है। मैं उसके घर पर अक्सर जाया करता हूँ। अगर वह कुर्सी वहाँ रहती तो मेरी निगाह में पड़ती ही। जहाँ तक मुझे मालूम है, उन्होंने दो बुककेस, दो ऑयल पेंटिंग, कुछ गुलदस्ते और शेल्फ सजाने की कुछ शौकिया चीजें, जिन्हें आर्ट ऑब्जेक्ट कहते हैं, खरीदी थी।
To be continued….