आसान हिजाब का मुश्किल हिसाब-किताब।

खामोश रहना तो कोई इजाजत नहीं होती,    तलवार की धार से जो गर्दन झुकी हो तो उसे झुकना ही कहते हैं वो इबादत नहीं होती।

 22 सितंबर को 10 दिन से चली आ रही मैराथन सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने हिजाब मामले में अपना फैसला सुरक्षित कर लिया हैं। इन 10 दिनों की तीखी बहस में पुरुष वकीलों, पुरुष गवाहों और पुरुष न्यायाधीशों ने तय कर लिया हैं कि स्त्री को क्या पहनना हैं, क्या नहीं पहनना हैं? और किस जगह पहनना हैं कहाँ नहीं पहनना हैं? यह सब कुछ सौ एक पन्नों में दर्ज कर लिया गया हैं और आगे पुरुषों के हवाले से ही स्त्रियों को फैसला भी सुना दिया जाएगा। उसके बाद औरतें वैसा ही पहनेंगी जैसा क़ानून बना होगा अपने मन से नहीं पहनेंगी वरना वहीं स्थितियां होंगी जो इस वक्त ईरान में हैं। वैसे भी सुनवाई के दौरान कहा ही गया है कि “कुरान में हिजाब का उल्लेख है इसकी अनिवार्यता को बनाए रखना मुस्लिम महिला का फ़र्ज़ हैं।

” 

अब फ़र्ज़ है तो भई जान देकर भी निभाना ही पड़ेगा, जैसे ईरान की 22 साल की महसा अमीनी ने निभाया, लेकिन यहाँ गौर करने वाली बात ये है कि उन्होंने निभाया नहीं बल्कि उनसे ये फ़र्ज़ जबरदस्ती निभवाया गया। मैं यहाँ बार-बार ईरान का नाम क्यों ले रही हूँ?     

इस वक्त दुनिया के दो देशों भारत व ईरान में एक चीज़ को ही लेकर दो विपरीत दिशाओं में लड़ाईया हो रही हैं। भारत में इसलिए की लड़कियों को हिजाब पहनने का हक़ मिले स्कूलों में भी क्योंकि ये धर्म का एक अहम हिस्सा हैं जैसे टीका- तिलक धार्मिक हैं वैसे हिजाब भी धार्मिक हैं।( एक तो मेरे अंदर ये कमी हैं कि जहाँ भी धार्मिकता होता हैं वहाँ मुझे कट्टरता समझ में आती हैं। ग्रेजुएशन में आने के बाद भी मेरा दिमाग इन स्कूल वाले बच्चों जितना भी नहीं चल पाता बताओ, जिन्हें क्रॉस, तिलक, हिजाब, भगवा तक सब समझ आने लगा हैं और मैं मोटी बुद्धी धर्म भी नहीं समझ पा रही ।) और दूसरा देश ईरान जहाँ हिजाब ना पहनने के लिए लड़किया संघर्ष कर रहीं हैं अपनी जान गँवा रहीं हैं।

 पुलिस हिरासत में अमिनी की मौत के बाद से वहाँ ये आंदोलन तेजी से चल रहा हैं , लड़किया अपनी चोटी काट कर और हिजाब जला कर इस बात का ऐलान कर रहीं हैं कि “बस अब बहुत हुआ , अब मैं अपनी मर्जी से जीऊंगी, खुलकर सांस लूंगी और खुले चेहरे पर पड़ती धूप से ये महसूस करुँगी कि मैं जिंदा हूँ।” जैसा कि एक ईरानी लड़की ने कहा भी कि ” मैंने अपना हिजाब फेक दिया और अब मुझे आजादी महसूस हो रही हैं सारा डर खत्म हो गया मेरा।”।   

एक ही हिजाब के दो पहलू, एक दूसरे के एकदम विपरीत लेकिन इन दोनों पहलुओं के बीच में हैं औरत। अगर हिजाब पहनेगी तो औरत ही, नहीं पहनेगी तो औरत ही लेकिन पहनने ना पहनने का निर्णय कौन लेगा? सरकार लेगी। वहाँ ईरान में कट्टरपंथियो की सरकार लेगी और यहाँ सुप्रीम सरकार। इन दोनों सरकारों के प्रमुख पुरुष ! वो पुरुष ना जिन्हें हिजाब पहनना हैं और न ओढना। वो बताएँगे कि औरतें हिजाब पहने या नहीं। अच्छा सोच के देखिये फलां देश के फलां मुखिया हिजाब पर जून के महीने में बड़ा कड़ा निर्देश देने वाले हैं लेकिन ठीक उससे दो दिन पहले ही कुछ ऐसा हो जाए कि उन्हें दो दिन बुर्के में बिताने पड़ जाये ! तो तीसरे दिन जब वो निर्देश देने आएँगे तो उनका निर्देश क्या होगा ? 

मुझे नहीं समझ आ रहा कि हिजाब पर ईरान में इतनी सख्ती और अपने देश में इतनी गर्मा-गर्मी क्यों? शायद इसलिए कि ” जिसका काम उसी को साजे और करें तो डंडा बाजे ।”

पहनना औरतों को हैं, बदन उनका हैं, Choice उनकी हैं , तो आप क्यों फैसला दे? इस तरह के कदम से असमंजस्य तो होगा ही। अगर औरतों को अच्छा लग रहा हैं तो वे पहने और अगर कम्फर्ट फील नहीं हो रहा तो ना पहने बस इतनी सीधी सी बात है जो मर्द समझना नहीं चाह रहें और औरत समझाना।

मुझे पुरुषों से कुछ नहीं कहना है मुझे तो औरतों से कहना हैं कि “बहन कुछ तो बोलो, कम से कम कुछ तो ! कब तक कोई दूसरा तुम्हारे बारे में लिखेगा या बोलेगा? तुम बोलो क्योंकि तुम्हारे पास जुबान हैं, तुम बोलो क्योंकि तुम बोलती हुई अच्छी लगती हो, तुम बोलो क्योंकि किसी धर्मग्रंथ ने औरत के बोलने पर कोई मनाही नहीं की हैं, तुम बोलो क्योंकि बोलना तुम्हारा अधिकार हैं, तुम बोलो क्योकि कुछ कानों को जरुरत हैं तुम्हारी बोली की, तुम बोलो क्योंकि बोलना तुम्हें सूट करता हैं डिअर ।

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