जयशंकर प्रसाद की प्रसिद्ध कहानी दुखिया

 पहाड़ी देहात, जंगल के किनारे के गाँव और बरसात का समय! वह भी उषाकाल! बड़ा ही मनोरम दृश्य था। रात की वर्षा से आम के वृक्ष सराबोर थे। अभी पत्तों से पानी ढुलक रहा था। प्रभात के स्पष्ट होने पर भी धुंधले प्रकाश में सड़क के किनारे आम्रवृक्ष के नीचे बालिका कुछ देख रही थी। ‘टप’ से शब्द हुआ, बालिका उछल पड़ी, गिरा हुआ आम उठाकर अंचल में रख लिया। (जो पॉकेट की तरह खोंस कर बना हुआ था)। 

दक्षिण पवन ने अनजान में फल से लदी हुई डालियों से अठखेलियां कीं। उसका संचित धन अस्त-व्यस्त हो गया। दो-चार गिर पड़े। बालिका उषा की किरणों के समान ही खिल पड़ी। उसका अंचल भर उठा। फिर भी आशा में खड़ी रही। व्यर्थ प्रयास जानकर लौटी, और अपनी झोंपड़ी की ओर चल पड़ी। फूस की झोंपड़ी में बैठा हुआ उसका अंधा बूढ़ा बाप अपनी फूटी हुई चिलम सुलगा रहा था। दुखिया ने आते ही आंचल से सात आमों में से पाँच निकालकर बाप के हाथ में रख दिए और स्वयं बरतन मांजने के लिए ‘डबरे’ की ओर चल पड़ी। बरतनों का विवरण सुनिए, एक फूटी बटुली, एक लोंहदी और लोटा, यही उस दीन परिवार का उपकरण था। डबरे के किनारे छोटी-सी शिला पर अपने फटे हुए वस्त्र संभाले हुए बैठकर दुखिया ने बरतन मलना आरम्भ किया। 

अपने पीसे हुए बाजरे के आटे की रोटी पकाकर दुखिया ने बूढ़े बाप को खिलाया और स्वयं बचा हुआ खा-पीकर पास ही के महुए के वृक्ष की फैली जड़ों पर सिर रखकर लेट रही। कुछ गुनगुनाने लगी। दुपहरी ढल गई। अब दुखिया उठी और खुरपी-जाला लेकर घास छीलने चली। जमींदार के घोड़े के लिए घास वह रोज दे आती थी, कठिन परिश्रम से उसने अपने काम भर घास कर लिया, फिर उसे डबरे में रखकर धोने लगी। सूर्य की सुनहली किरणें बरसाती आकाश पर नवीन चित्रकार की तरह कई प्रकार के रंग लगाना सीखने लगीं। अमराई और ताड़-वृक्षों की छाया उस शाद्वल जल में पड़कर प्राकृतिक चित्र का सृजन करने लगी। दुखिया को विलम्ब हुआ, किन्तु अभी उसकी घास धो नहीं गई, उसे जैसे अभी इसकी परवाह ही ना थी। इसी समय घोड़े की टापों के शब्द ने उसकी एकाग्रता को कुछ परवाह भंग किया।

जमींदार कुमार संध्या को हवा खाने के लिए निकले थे। वेगवान ‘बालोतरा’ जाति का कुम्मेद पचकल्यान आज गरम हो गया था। मोहनसिंह से बेकाबू होकर वह बगटुट भाग रहा था। संयोग! जहाँ पर दुखिया बैठी थी, उसी के समीप ठोकर लेकर घोड़ा गिरा। मोहनसिंह भी बुरी तरह घायल होकर गिरे। दुखिया ने मोहनसिंह की सहायता की। डबरे से जल लाकर घावों को धोने लगी। मोहन ने पट्टी बांधी, घोड़ा भी उठकर शान्त खड़ा हुआ। दुखिया उसे टहलाने लगी थी। मोहन ने कृतज्ञता की दृष्टि से दुखिया को देखा, वह एक सुशिक्षित युवक था। उसने दरिद्र दुखिया को उसकी सहायता के बदले ही रुपया देना चाहा। दुखिया ने हाथ जोड़कर कहा- ‘बाबूजी, हम तो आप के ही गुलाम हैं। इसी घोड़े को घास देने से हमारी रोटी चलती है।’   अब मोहन ने दुखिया को पहचाना। उसने कहा’क्या तुम रामगुलाम की लड़की हो?’ ‘हाँ, बाबू जी।’                            ‘वह बहुत दिनों से दिखता नहीं!’ ‘ बाबूजी, उनकी आँखों से दिखाई नहीं पड़ता।’                                                      ‘अहा, हमारे लड़कपन में वह हमारे घोड़े को, जब हम उस पर बैठते थे, पकड़कर टहलाता था। वह कहाँ है?’ ‘ अपनी मड़ई में।’ 

‘चलो, हम वहाँ तक चलेंगे।’ 

किशोर दुखिया को कौन जाने क्यों संकोच हुआ, उसने कहा-‘बाबूजी, घास पहुँचने में देर हुई है। सरकार बिगड़ेंगे।’         ‘कुछ चिन्ता नहीं; तुम चलो।’ 

लाचार होकर दुखिया घास का बोझा सिर पर रखे हुए झोंपड़ी की ओर चल पड़ी। घोड़े पर मोहन पीछे-पीछे था। 

‘रामगुलाम, तुम अच्छे तो हो?’ 

‘राज! सरकार! जुग-जुग जीओ बाबू!’ बूढ़े ने बिना देखे अपनी टूटी चारपाई से उठते हुए दोनों हाथ अपने सिर तक ले जाकर कहा। ‘रामगुलाम, तुमने पहचान लिया?” 

‘न कैसे पहचानें, सरकार! यह देह पली है।’ उसने कहा। ‘तुमको कुछ पेंशन मिली है कि नहीं?’ 

‘आप ही का दिया खाते हैं, बाबूजी! अभी लड़की हमारी जगह पर घास देती है।’ भावुक नवयुवक ने फिर प्रश्न किया, ‘क्यों रामगुलाम, जब इसका विवाह हो जाएगा, तब कौन घास देगा?’ रामगुलाम के आनन्दाश्रु दुख की नदी होकर बहने लगे। बड़े कष्ट से उसने कहा- ‘क्या हम सदा ही जीते रहेंगे?” अब मोहन से नहीं रहा गया, वहीं दो रुपये उस बुड्ढे को देकर चलते बने। जाते-जाते कहा- ‘फिर कभी।’ 

दुखिया को भी घास लेकर वहीं जाना था। वह पीछे चली। जमींदार की पशुशाला थी। हाथी, ऊंट, घोड़ा, बुलबुल, भैंसा, गाय, बकरे, बैल, लाल किसी की कमी नहीं थी। एक दुष्ट जमीन खां इन सबों का निरीक्षक था। दुखिया को देर से आते देखकर उसे अवसर मिला। बड़ी नीचता से उसने कहा- ‘मारे जवानी के तेरा मिजाज ही नहीं मिलता! कल से तेरी नौकरी बंद कर दी जाएगी। इतनी देर!’ 

दुखिया कुछ नहीं बोलती, किन्तु उसको अपने बुड्ढे बाप की याद आ गई। उसने सोचा, किसी तरह नौकरी बचानी चाहिए, परन्तु कह बैठी , ‘छोटे सरकार घोड़े पर से गिर पड़े रहे। उन्हें मड़ई तक पहुँचाने में देर…….!’ 

‘चुप हरामजादी! तभी तो मेरा मिजाज बिगड़ा है। अभी बड़े सरकार के पास चलते हैं।’ 

वह उठा और चला। दुखिया ने घास का बोझा पटका और रोती हुई झोंपड़ी की ओर चलती हुई। राह चलते-चलते उसे डबरे का सायंकालीन दृश्य स्मरण होने लगा। वह उसी में भूल कर अपने घर पहुँच गई।

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