बेचारा भला आदमी

 मैंने सुना है कि दुकानदार ने भले आदमी के रूप में मेरा उदाहरण दिया। मैं उदाहरण बनने से बहुत डरता हूँ। मार्क ट्वेन ने कहा है कि लोग जिस चीज से सबसे अधिक चिढ़ते हैं वह है- अच्छा उदाहरण। अच्छा उदाहरण एक बार बन जाने पर आदमी अच्छाई का गुलाम बन जाता है। मेरे एक मित्र को लोगों ने जवानी में ही त्याग का उदाहरण बनाकर उनकी जिन्दगी बरबाद कर दी। मैं अच्छेपन का उदाहरण बनकर नहीं रहना चाहता। कोई बुराई करता है, तो मुझे सन्तोष होता है कि कभी भूले-भटके उस आदमी का भला मेरे हाथों हो गया होगा। तारीफ से डर लगता है। कोई मुँह पर तारीफ करे तो उससे पूछ लेता हूँ कि बता भाई कौन-सी बेवकूफी करूँ? नाली में कूद पहूँ! धूल में लोटूं? तारीफ करके आदमी से कोई भी बेवकूफी कराई जा सकती है। पीछे कोई किसी की तारीफ करेगा, इस बात पर कोई विश्वास नहीं करेगा। हम कुछ मित्रों के बारे में एक बार एक व्यक्ति ने आश्चर्य से कहा—ये लोग तो ऐसे दोस्त हैं कि पीठ-पीछे भी एक-दूसरे की तारीफ करते हैं। हम लोगों ने बाद में इस पर बहुत विचार किया और इस नतीजे पर पहुँचे कि हम लोग मित्रता के आधार की अवहेलना कर रहे हैं—मित्र तो वही होता है, जो मुँह पर तारीफ करे, पीठ-पीछे तारीफ करनेवाला भी कोई मित्र है!दुकानदार मेरा मित्र नहीं है। उसने मुझे भला आदमी कहा, तो मैं चिन्तित हो गया। उसकी दुकान से मैं उधार सामान लेता हूँ और जितना बिल वह बता देता, बिना हिसाब देखे दे देता हूँ। हिसाब न देखना मेरा देवत्व नहीं है, आलस्य है। कई बार बुराई भलाई के रूप में प्रचार पाती है। एक धनवान लेखक के बारे में यह बुराई फैली कि वह पैसे देकर दूसरों से पुस्तकें लिखवाता है। मैंने लोगों को समझाया कि अगर तुम उनकी पुस्तकें पढ़ो तो तुम्हें विश्वास हो जाएगा कि वे उन्होंने लिखी हैं। इतना रद्दी उनके सिवाय हिन्दी में और कौन लिख सकता है? घटिया लिखना उनकी ईमानदारी का सबूत हो गया। कई दुकानदारों की मीठी बातें जो व्यापारिक चतुरता है, मानवीयता के नाम से बाजार में चलती है। मेरा आलस्य भलमनसाहत के रूप में चलता है। दुकानदार से कोई ग्राहक हिसाब को लेकर झगड़ रहा था। दुकानदार ने कहा- आप तो बड़ी झिक-झिक करते हैं। परसाईजी बेचारे भले आदमी हैं। जो हिसाब बता दो, बिना देखे दे जाते हैं। मुझे देखकर ग्राहक बिलकुल प्रभावित नहीं हुआ। उसने मुझे भला तो नहीं, पर बेवकूफ जरूर समझा होगा।

मैं भी चिन्तित हो गया। मैं कोई खास भला नहीं हूँ। देना भूल जाता हूँ, लेना नहीं भूलता। मैं भला हूँ, क्योंकि आलसी आदमी हूँ। बुरा होने के लिए हाथ, पाँव और मन को हिलाना पड़ता है। अगले महीने मैंने बुरा आदमी बनने की कोशिश की। मैं घर में हिसाब रखता गया। महीने के अन्त में जब उससे हिसाब पूछा तो पाया कि उसने दस रुपए बढ़ा लिये हैं। काफी महँगा सर्टिफिकेट दे रहा था वह मुझे। विश्वविद्यालय से मैंने दस रुपए भेजकर एम.ए. का सर्टिफिकेट ले लिया था, जो मुझे जिन्दगी-भर शिक्षित बनाने के लिए काफी है। दुकानदार का सर्टिफिकेट, जिसे मैं मढ़ाकर टाँग भी नहीं सकता, 10 रुपए में सिर्फ एक महीने के लिए मिलता है। मुझे हर साल 120 रुपए इसलिए देने पड़ते हैं कि एक छोटे से शहर का एक जनरल मर्चेंट मुझे भला आदमी कहे। अगर मैं उससे शेष जिन्दगी याने लगभग 30 साल सामान खरीदता रहूँ, तो लगभग साढ़े तीन हजार रुपए मैं सिर्फ इसके दूँगा कि उसने मुझे भला आदमी कहा। सारा बाजार मुझे भला कहे, इसके लिए तो पूरी आमदनी बाँट देनी पड़ेगी। मुझे यह मंजूर नहीं। मैं हिसाब देखने लगा। भले आदमी के उदाहरण के लिए किसी और का उपयोग होगा। 

लेकिन तब से मैं भले आदमियों के बारे में छानबीन कर रहा हूं। एक मकान मालिक कहता था कि पांडेजी बेचारे बड़े भले आदमी हैं। पांडेजी उसके मकान में किराए पर रहते हैं। एक बरसात के दिन मैं पांडेजी के घर गया। देखा कि सारे घर में पानी टपक रहा है। उनसे कहा कि मकान मालिक से मरम्मत के लिए क्यों नहीं कहते। पांडे जी ने लापरवाही से कहा -‘ऊन्ह, 10-12 दिन ही तो पानी के होते हैं। निकल जाएँगे।’ मकान पालिक कहता है कि पांडेजी बेचारे भले आदमी हैं। एक सज्जन अफसर कहते कि राजेन्द्र मास्टर बेचारा भला आदमी है। जाँच करने पर हर इस तरह का प्रशंसक ‘भला’ के पहले ‘बेचारा’ जरूर लगता है। ‘बेचारा भला आदमी है।’ यह अकारण नहीं है। हमारी पूरी विचार प्रक्रिया इन दो शब्दों के साथ चलने में झलकती है। हम ‘भला’ उसी को कहेंगे जो ‘बेचारा’ हो। जब तक हम किसी को ‘बेचारा’ न बना दें, तब तक उसे भला नहीं कहेंगे। क्यों? इसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि जो बेचारा नहीं है, वह हमें अपने लिए ‘चैलेंज’ लगता है। उसे हम भला क्यों कहें? दूसरा कारण यह है कि जो बेचारा है, उसे हम दबा सकते हैं, लूट सकते हैं-उसका शोषण कर सकते हैं। किसी को ‘भला’ कहना उसकी प्रशंसा नहीं है। उसे ‘बेचारा’ करके दया प्रकट करना है। जो हर काम के लिए चन्दा दे देता है, वह बेचारा भला आदमी है। जो रिक्शावाला कम पैसे ले लेता है, वह बेचारा भला आदमी है। जो लेखक बिना पैसे लिये अखबार के लिए लिख देता है, उसे सम्पादक बेचारा भला आदमी कहते हैं। टिकट कलेक्टर बेचारा भला आदमी है, क्योंकि वह बिना टिकट निकल जाने देता है। अपनी व्यवस्था ने बहुत सोच-समझकर यह मुहावरा तैयार किया है। 

पिछले दस सालों से एक व्यक्ति के बारे में सुन रहा हूँ कि वह बेचारा भला आदमी है; लँगोटी तक उतारकर दे देता है। उस भले आदमी ने कोट उतारकर दे दिया, कमीज उतारकर दे दिया, टोपी उतारकर दे दी, धोती उतारकर दे दी और लँगोटी उतारकर दे ही रहा था कि सावधान हो गया। उसने फिर पूरे कपड़े पहन लिये। अब कोई उसे भला आदमी नहीं कहता, क्योंकि वह ‘बेचारा’ नहीं रहा। 

एक स्कूली किताबें छापने और बेचनेवाला मुझे ‘बेचारा भला आदमी’ कहता था। मैं उसे पुस्तकें लिख देता और जो वह देता, ले लेता। उसके बाप-दादे पीढ़ियों से ऐसे बेवकूफ की तलाश में थे। अब जाकर मैं मिला था। वह मेरा यश फैलाता था-‘परसाई बेचारा भला आदमी है।’ एक बार मैं बीमार पड़ा। तभी मैं उसके लिए पुस्तक लिख रहा था, जो आधी दे दी थी, और आधी की पांडुलिपि मेरे पास थी। वह मेरी तबीयत के बारे में पूछने आया। बीमारी के बारे में पूछा, लेखक के संघर्ष के प्रति सहानुभूति जतलाई, संसार की असारता पर मत प्रकट किया और अंत में सिद्ध किया कि लिखना तो तपस्या है। उसने मुझे यह भी समझाया कि सच्चा लेखक तो भौतिक उपलब्धियों से मुँह फेर लेता है; वह तो त्यागी होता है। (चोर ही सबसे अधिक इस बात का प्रचार करते हैं कि इस महान देश में पहले लोग घरों में ताले नहीं लगाते थे।) मैं उसके प्रवचन को सुनता रहा। जब उसने बाकी पांडुलिपि माँगी तो मैंने कहा कि मुझे पैसों की जरूरत है। आप शाम तक भेज दीजिए। एक मिनट पहले के उस ज्ञानी का चेहरा एकदम गिर गया; उसकी आँखों में क्लेश आ गया और वह ऐसा कातर हो गया, जैसे मैंने उससे कह दिया हो कि भाई, तुम यहाँ बैठे हो; घर में तुम्हारे पिताजी की मृत्यु हो गई। इसके बाद उसने मुझे भला आदमी नहीं कहा। कहता था- मैं तो समझता था कि वह भला आदमी है। पर मैं तो उसकी तबीयत देखने गया और वह पैसे माँगने लगा। 

मुझे इस ‘बेचारा भला आदमी’ से डर लगता है। अगर देखता हूँ कि मेरे बगल में ऐसा आदमी बैठा है, जो मुझे ‘बेचारा भला आदमी’ कहता है, तो जेब सँभाल लेता हूँ। क्या पता वह जेब काट ले !        (सुप्रसिद्ध व्यंगकार हरिशंकर परसाई)    

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