बस्ती-मुहल्ले में अब भी जब-तब द्रौपदी की चर्चा हो जाती है। जब वह मुहल्ले से गई, कई दिन उसका नाम लोगों की जबान पर रहा। गरीब भोले पुरोहित के घर जन्म लेते समय उसने किसी का ध्यान आकर्षित नहीं किया था। लड़की थी, लड़की के जन्म के समय कोई समारोह या प्रसन्नता का प्रदर्शन नहीं होता। कोई फूल की थाली तक नहीं बजाता। वह मां-बाप की पहली संतान भी नहीं थी। उससे पूर्व के दो भाई मौजूद थे। जन्म से ही वह नगण्य थी। उसे कोई उसके पूरे नाम से भी नहीं पुकारता था। नारी शरीर के ऐसे नगण्य अंकुर को महाभारत की प्रातःस्मरणीय नायिका, पंच-कन्याओं में से एक का नाम दे देना, भोले पुरोहित की भोली विद्रूपमय स्पर्धा ही जान पड़ी थी। उस अकिंचन कन्या के लिए इतना बड़ा नाम किसी ने स्वीकार न किया। पड़ोसी तुतलाते बच्चों के मुख से उसके लिए उपयुक्त नाम स्वतः ही प्रचलित हो गया- ‘पोदी!’
पोदी के पिता, भोले पुरोहित का निर्वाह देवी-देवताओं के भोग के अंश और भक्तों के दान-पुण्य पर ही था। उनके और उनकी पुरोहिताइन के लिए पोदी से पूर्वागत दो लड़कों के पालन का बोझ ही क्या कम था। लड़कों से आशा भी थी कि वे बुढ़ापे की लकड़ी बनेंगे। पोदी के लालन-पालन और संवर्धन में उत्साह किस आशा से होता! उसने जन्म ही माता-पिता को कन्यादान का पुण्य अर्जन करने का अवसर देने और उस दान का पुण्य निबाह सकने की चिंता देने के लिए लिया था। पोदी ने कन्या का जन्म पाकर माता-पिता को तो कन्यादान के पुण्य का अवसर दिया परंतु स्वयं उसने कन्या का जन्म अपने गत जन्मों के पापों के भुगतान के लिए ही पाया था। भोले पुरोहित को, पोदी के रूप में कन्यादान का अवसर देना भी दैव की एक छलना ही थी। पोदी का कन्यादान करके भी भोले उससे पीछा नहीं छुड़ा सके।
भोले पुरोहित ने रीति और परंपरा के अनुसार लड़कों के विवाह, उनके किशोरावस्था लांघने से पूर्व ही कर दिए थे। छोटे लड़के का विवाह संपन्न करने के लिए बदले में पांच वर्ष की पोदी का कन्यादान कर दिया था। पोदी के विवाह को डेढ़ वर्ष ही बीता था। लड़की अभी बस्ती-मुहल्ले की गलियों में एक हाथ से घोंसले जैसे अपने सूखे केश खुजलाती और दूसरे हाथ से सदा बहती नाक पोंछती, केवल झगला मात्र पहने, गली के बच्चों को आंखमिचौली और लट्टू खेलते देखती थी। उस समय पोदी के ससुराल, ‘दोमरा’ वासियों के गत जन्म के पापों फलस्वरूप गांव पर प्लेग की महामारी का वज्र आ गिरा। पोदी का आठ वर्ष का पति गनेश अल्पायु में ही चल बसा।
पोदी ने गत जन्म में क्या अनाचार, अन्याय और अपराध किए थे, इस पर न तो सामाजिक ज्ञान के पंडित प्रकाश डाल सके, न आध्यात्मिक ज्ञान के। पोदी को अभी न अपने शरीर की सुध थी, न वह दो बात ही कर सकती थी। अनाचार, अपराध के फल और उत्तरदायित्व की बात ही वह क्या समझती? भोले पुरोहित के द्विज समाज ने अपनी प्रथा और रीति को दैव का विधान बताकर पोदी को हिंदू-वैधव्य का आजन्म दंड दे दिया। हिंदू वैधव्य है, नारी शरीर और नारी का स्वभाव और प्रकृति पाकर, नारीत्व के स्वभाव और प्रकृति के अधिकारों से वंचित हो जाने, निरंतर अपनी ही प्रकृति से लड़ने, अपने में जलते रहने, मरते रहने का धर्म निबाहने का दंड। पोदी तो अपने दंड और दुर्भाग्य को जान भी न पाई, न उसके लिए रोई। लड़की आंखें और नाक तो मलती ही रही लेकिन वैधव्य के शोक से नहीं, बाल-शरीर के कष्टों और आदत के कारण। भोले पुरोहित और पोदी की मां ने अपनी शिशु कन्या के वैधव्य के आघात से सिर पीट लिया। अपने समाज की रीति को दैव का विधान मानकर चुप रह गए।
पोदी के विधवा हो जाने से पूर्व उसकी मां लड़की का मुंह धोकर कभी काजल भी लगा देती। महीने- पखवाड़े लड़की के सिर से जुएं बीनकर उसका सिर धो, कड़वा तेल चुपड़ उसके केशों को बालिस्त भर की चुटिया में गूंथ देती। कभी पोदी मुहल्ले की दूसरी बच्चियों की हिरख से जिद कर बैठती तो पैसे-दो पैसे की कांच की छोटी-छोटी चूड़ियां भी उसे पहना देती। लड़की के विधवा हो जाने के बाद यह सब अनावश्यक और असंगत ही नहीं, अधर्म भी हो गया था। मां ने पोदी की रंगीन कांच की चूड़ियां स्वयं तोड़ दी थीं। फिर कभी पोदी अपनी उम्र की लड़कियों के हाथों में चूड़ियां देखकर, चूड़ियों के लिए जिद करती तो मां अपना सिर पीट लेती और बेटी का सिर झिंझोड़ देती ।
दो-चार बार मार खाकर शिशु पोदी समझ गई और चूड़ियों की इच्छा करने से डर गई। लड़की का ध्यान और रुचि उस ओर न जाना ही उचित था। वह जन्म भर के लिए कलमुंही, रांड़ और असगुनी हो गई थी।
पोदी माता-पिता के लिए जीवन भर का बोझ बन गई थी। असगुनी लड़की की गुड़ियों और घरौंदों में बालिका- सुलभ रुचि से मां खिन्न हो जाता। झुंझलाकर लड़की को चौके-चूल्हे या दूसरे काम में मरने को कह देती। पुरोहिताइन निर्वाह के लिए मुहल्ले के दो-एक भले आदमियों के घर में रसोई का काम लिए रहती थी। पोदी को चीज-बस्त उठा-पकड़ा देने अथवा झाड़-बुहार में सहायता के लिए साथ ले जाती।
पोदी घर और बाहर सभी जगह अनावश्यक और तिरस्कृत थी । गली-मुहल्ले के बड़े-बूढ़े बताते हैं-आठ-दस वर्ष की रांड़ पोदी उपेक्षित और निरपेक्षित सी भोले पुरोहित के दरवाजे पर और गली में बनी रहती थी; मुहल्ले के लावारिस कुत्तों- पिल्लों की तरह, जिन्हें लोग घृणा से दुत्कारते और दया से सहते रहते हैं। चील के घोंसले से रूखे, बिखरे बाल रूखे सांवले चेहरे पर आंखों और नाक के मैल की घसीटें, कंधों पर किसी भाई का उतारा हुआ फटा झगला, कमर पर कभी चिथड़ी धोती का टुकड़ा, कभी भाइयों का फटा जांघिया और कभी कुछ भी नहीं। रांड़ बालिका पोदी तितली के अंडे से निकले कीड़े (लार्वा) की भांति उपेक्षित और घिनौनी थी, जिसे कोई जिलाने-पालने का यत्न नहीं करता। वह क्रीड़ा अपने ही जीवट से जी पाता है, उसे चट-हजम कर, पाला-घाम सहकर तितली बन जाता है और पर लग जाने पर उड़ने लगता है, तब सब उसे कौतूहल से देखना चाहते हैं। ऐसे ही समय आने पर पोदी ने यौवन के पर निकाले और मोहक तितली की भांति उड़ने लगी। वह गली-मुहल्ले से पाई उपेक्षा का बदला लेने के लिए लोगों की मुसीबत बन गई। पोदी 12-13 की आयु में अपनी स्थिति और चारों ओर की परिस्थिति समझने लगी थी। वह लोगों की आंखें पहचानने और अपने आपको संभालने-दिखाने लगी। देखते-देखते वह कुछ से कुछ हो गई, जैसे कड़ा, कच्चा-कसैला फल समय आने पर गदराकर कोमल और मधुर हो जाता है, रंग बदल लेता है और हठात् दृष्टि और मन को खींचने लगता है।
पोदी का शरीर आयु से भरने पर उसकी सूझ-समझ भी पैनी हो गई। वह अपनी स्थिति और भविष्य को समझ गई थी। समाज या भाग्य ने उसके लिए सब कुछ निषिद्ध कर दिया था सही परंतु अनुभव करती थी कि संतोष पा सकने की इच्छा और सामर्थ्य तो उससे कोई छीन नहीं सका था। पोदी अपनी स्थिति का ध्यान रख, जनदृष्टि और जनमत से सतर्क होकर निबाहने का यत्न
करने लगी।
बस्ती-मुहल्ले के समीप ही कन्या-पाठशाला थी। मुहल्ले की कई लड़कियां पाठशाला जाती थीं। मुंशी जी के घर की गिनती मुहल्ले के भले और संभ्रांत परिवारों में थी। कई वर्ष पहले मुंशी जी की बड़ी बहू दो बच्चों की मां बनकर विधवा हो गई थी। विधवा बहू अपने सिर पर समय का बोझ और घर पर अपना बोझ हलका कर सकने के लिए कन्या पाठशाला में अध्यापिका का काम करने लगी थी। पोदी चौदह वर्ष की हो चुकी तो उसे भी खयाल आया- हाय, उसने भी कुछ पढ़-लिख लिया होता तो उमर काटने का सहारा हो जाता पर अब समय निकल चुका था। चौदह वर्ष की ऊंटनी पोदी को पढ़ना-लिखना सीखने के लिए छह-सात वर्ष की बच्चियों में कौन बैठने देता! वह स्वयं भी उनमें कैसे जा मिलती! पढ़ना-लिखना सीख सकने की उमर में तो वह अपने और यजमानों के घरों में, रसोई और चौके में मां की मदद कर रही थी।
पोदी के शरीर पर डकैत नजरों से छिपाने योग्य कुछ हो गया तो फटी-चीथड़ा चोली और तार-तार छलनी धोती से काम कैसे चलता? दर्शनीय को गोपनीय रखना आवश्यक होता है। पोदी भी चाहभरी नजरों की चुभन अनुभव कर सावधान होने लगी। वह मां को समझाने-सिखाने योग्य हो गई थी, अब रक्षा के लिए मां की उंगली पकड़कर उससे क्या चिपकी रहती? प्रौढ़ा मां के शिथिल हाथ जितने समय में एक यजमान की रसोई निपटाते, उतने में पोदी कमर में फेंटा कसे, चंचल नेत्रों और चंचल हाथों से दो घरों को निपटा, रिझा सकती थी। वह मां से पृथक्, अकेली जहां-तहां कुछ काम करने लगी। ढंग से पहनने-ओढ़ने की उसे जरूरत थी और घर की जरूरत में भी सहायता कर देती थी। भोले पुरोहित को प्रायः विजया का सहारा हो गया था। पोदी चौदह की थी तभी मां से कद निकाल चुकी थी। बेटी कद में ही क्या, सभी बातों में मां से बढ़ गई थी। मां की अपेक्षा निडर हो, चतुराई से बात कर सकती थी। मां की अपेक्षा यजमानों की बात और संकेत को अधिक समझ लेती। अच्छा रांध लेती। पहनने-ओढ़ने का अधिक अच्छा ढंग जान गई थी। मां केवल धोती में ही सिमटी-सिमटी प्रौढ़ा हो गई थी। पोदी ने भले घर की बहू-बेटियों की देखादेखी पेटीकोट पर धोती बांधना और खुले गले की बंडी पहनना सीख लिया। भले घरों की बहुओं-बेटियों को देखकर धोती के आंचल को अधिक सुघड़पन से कंधे और आधे सिर पर रखने खिसकाने का ढंग उसने सीख लिया। उसे अपनी उम्र की लड़कियों-बहुओं की तरह रंगीन, चटकीली धोती पहनने की साध होती तो निंदा और विरोध से भर्त्सना होने लगती। उसकी धोती सफेद रहने पर भी अच्छी शोख किनारीदार और सुथरी, चुन्नट पड़ी हुई उजली रहती। वह माता-पिता और मुहल्ले वालों के संतोष के लिए वैधव्य के नियम-व्रत और देवी-दर्शन, पूजन, अधिक चर्या और ध्यान से निबाहने लगी। एक समय पोदी मुहल्ले की सबसे अकिंचन, कीड़े की तरह कातर और उपेक्षित प्राणी थी। अब वह मुहल्ले की तितली बनकर, बड़े मिश्रा जी, रग्घू लाला और मुंशी जी से भी अधिक चर्चा का विषय बन गई। प्रकट में पोदी के कारण झगड़े, उसकी चर्चा और अपवाद ज्यों-ज्यों बढ़ने लगे परोक्ष में उसके याचकों की संख्या और उसके हृदय में अपने आकर्षण और सामर्थ्य का आत्मविश्वास भी बढ़ता गया।
लोगों ने पोदी के सामर्थ्य की सराहना में उसका वास्तविक नाम उसे लौटा दिया। वह फिर द्रौपदी पुकारी जाने लगी। यह परिवर्तन उसके व्यक्तित्व के प्रति आदर के कारण नहीं, अपितु उपालंभ था। द्रौपदी को लेकर मुहल्ले और पड़ोस के मुहल्लों के पांडवों और कौरवों की गिनती होती रहती थी। द्रौपदी के प्रसंग से बांकों और छैलों को युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, दुर्योधन, दुश्शासन और कीचक की उपाधियां बांटी जातीं।
द्रौपदी अपनी परिस्थितियों, अपने दुर्भाग्य और सामर्थ्य सभी के प्रति समान रूप से सचेत थी। अपने लिए सब निषेधों और दुर्भाग्य के साथ संतोष की संभावनाओं का समन्वय निबाहना सरल काम नहीं था। समाज द्वारा दिए दुर्भाग्य और निषेध से प्रकट विद्रोह किए बिना भी संतोष का अवसर पा सकने के लिए नीति और आवरण आवश्यक थे। इसीलिए उसकी ख्याति और अपवादों के प्रसार के साथ उसके चातुर्य, पूजा व्रत और नियम के कर्मकांड का व्यवहार भी बढ़ता जा रहा था। उसके कारण मुहल्ले में कई कांड हो चुके थे। पड़ोस के मुहल्लों से भी झगड़ा हो चुका था। वह बस्ती-मुहल्ले के जवानों में कलह का, स्त्रियों में ईर्ष्या का, प्रौढ़ों में चिंता का और अपने माता-पिता के लिए भयंकर संकट का कारण बन गई थी परंतु वह चातुर्य, धैर्य और सतर्कता से निबाहे जा रही थी।
बस्ती-मुहल्ले के सब लोग मिलकर द्रौपदी को जितना जान सके थे, उतना उसे भरोसा था,वह उन सबको जान गई थी। वह खूब जानती थी कि उसके प्रति अधिकांश लोगों का असंतोष और आक्रोश उसकी कृपा न पा सकने के कारण ही था। उसे भरोसा था एक संकेत से जिसे चाहे चुप करा देती, जिसे चाहे अंगूठा दिखा देती। वह किसके आगे हाथ फैलाती थी, जो किसी से दबती। दबती थी तो केवल अपने दयनीय माता-पिता की इज्जत और लोक व्यवहार के खयाल से। उसके दोनों बड़े भाई घर की कृच्छता से बचने के लिए जीविका की खोज में दूर-दूर नगरों में चले गए थे। उसे घर में ही रहना था, इसलिए मां-बाप को विश्वास से संतुष्ट और चुप रखना आवश्यक था।
द्रौपदी 13-14 की थी, तब उसकी मां, बेटी के संबंध में कोई अपवाद सुनती तो बौखला उठती थी। लड़की को रांड़, कलमुंही कहकर, उसका झोंटा पकड़कर, उसका कलेजा चीरकर खून पी जाने, मार देने, गाड़ देने की धमकियां देती थी। भोले पुरोहित जवान बेटी पर हाथ नहीं उठा सकते थे, बकने-झकने लगते या लज्जा-अनुताप में कुएं में कूद पड़ने या जहर खा लेने का निश्चय प्रकट कर आंसू बहाने लगते। परंतु अब द्रौपदी की जबान खुल गई थी। वह ऊंचा बोलना सीख गई थी। वह विरोध में ललकार उठती-आरोप लगाने वालों में दम है, सच्चाई है तो देवी के सामने कहें, गंगाजली उठाएं, हाथ पर आग रखकर बोलें। वह स्वयं आग हाथ पर रख लेने या हाथ आग में देने के लिए तैयार हो जाती। कभी धोती के फंदे से फांसी लगा लेने, नदी में डूब मरने या विष खाकर सो जाने की धमकी देकर मां-बाप को चुप करा देती। ऐसा भी अवसर आ जाता कि द्रौपदी अपने ऊपर आरोप का समाधान कठिन या असंभव पाती तो वह घंटे दो घंटे के लिए देवी के ध्यान में मूर्च्छित हो जाती, कभी देवी को साधुओं के परित्राण और पापियों के विनाश के लिए गुहारने लगती। इस पर भी लोगों का समाधान न होता तो उस पर देवी आ जाती। वह केश फैला, सिर और कंधे हिला हिलाकर हुंकारने लगती और मिथ्या आरोप लगाने वालों को भस्म कर देने या चंडी बनकर उन्हें निगल जाने के लिए ललकारने लगती।
द्रौपदी ने समझ लिया-सामान्य जवान लड़कियों-स्त्रियों के लिए भाग्य से जो सुलभ होता है, वह उसके लिए नहीं। उसका निर्वाह असामान्य बनकर ही हो सकता था। एक संध्या वह देवी की पूजा के लिए घाट की ओर चली गई थी। रात क्या, वह दूसरे दिन चौथे पहर से पहले न लौट सकी। जब लौटी तो उसकी आंखें लाल थीं, गले में तुलसी की माला, माथे और गले में चंदन पोते थी। मुहल्ले के अनेक स्त्री-पुरुष उसके द्वार पर इकट्ठे हो गए थे। द्रौपदी ने निधड़क घोषणा कर दी कि वह वैष्णवी की दीक्षा लेकर आई थी। उसे सामान्य स्त्रियों के अवसर सुलभ नहीं थे तो क्या उनकी तरह रोक-टोक से केवल सहमी ही रहती। रोक-टोक से छंट जाने और असामान्य व्यवहार का अधिकार अपना लेने के लिए वह वैष्णवी बन गई और वैसा ही व्यवहार करने लगी थी। जब चाहती, दिन-रात में उठकर मंदिर, घाट जहां-तहां चली जाती। बस्ती-मुहल्ले के लोग द्रौपदी के वैष्णवी धर्म पर कनखियों से मुस्कराते और कहकहे लगाते रहते परंतु भोले पुरोहित और द्रौपदी की मां वैष्णवी बेटी पर विश्वास कैसे न करते? क्या देखते नहीं थे कि उनकी वैष्णवी बेटी न केवल एकादशी प्रत्युत् पूर्णिमा और अमावस्या को भी देवी के चरणामृत और प्रसाद के अतिरिक्त कुछ ग्रहण नहीं करती थी। महाभारत की द्रौपदी की ही तरह उसके सत के प्रभाव से घर में आटा, चावल, दाल के घड़े कभी सूने नहीं हो पाते थे।
वैष्णवी द्रौपदी 17 वर्ष की आयु तक अपने सरल, भोले पिता और माता के लिए बहुत सतर्कता और यत्न से अपवादों के विरोध में विश्वास का अवलंब बनाए रखने में सफलता पाती रही परंतु उसे भी तो कोई अवलंब चाहिए था जो पिता-माता नहीं, जाति-बिरादरी और कोई भी व्यक्ति मुहल्ले में नहीं दे सकता था। ऐसे अवलंब की आशा उसे किसी एक व्यक्ति ने दी थी। उस व्यक्ति ने उसे जीवन भर के लिए अपनी बनाकर बंबई ले जाने का आश्वासन दिया था। वैष्णवी को छोटे-मोटे क्षणिक अवलंबों की कमी नहीं थी। उन्हें वह अपने माता-पिता और मुहल्ले के लोगों के परोक्ष में अनेक बार पकड़ती बदलती रही थी। उस अस्थिरता से उसका मन विरक्त हो गया था। वह अपने चारों ओर चाह की खोचों से ऊब गई थी। पूरी बस्ती-मुहल्ले के जवान उसे चाहते थे, वैसे ही जैसे धरती या छत पर पड़े अरक्षित भोजन के ग्रास को सब कौवे चाह से झपट लेना चाहते हैं और उसके लिए आपस में लड़ते हैं। वह बकोटने वाले हाथों से ऊबकर रक्षा करने वाली बांहों के लिए तड़प उठी थी। वह अपनी गर्दन सदा के लिए किसी कंधे पर रख देना चाहती थी परंतु माता-पिता के घर में रहकर तो ऐसा कर सकना संभव नहीं था।
द्रौपदी के दोनों बड़े भाई माता-पिता को असहाय छोड़कर जीविका की खोज में पहले ही जा चुके थे। मां बुढ़ापे और बाई के दर्द से अपंग हो बेटी के भरोसे शिथिल हो गई थी। बूढ़े पुरोहित पिता के घुटनों में भी अब पुरोहिताई के लिए मुहल्ले-मुहल्ले घूमते फिरने का दम नहीं रहा था। द्रौपदी ही उनका सहारा थी।वह अवलंब पाने के लिए एक बार अपना घर छोड़ देने पर माता-पिता की चिंता से भी फिर घर नहीं लौट सकती थी। अपने पीछे माता-पिता की दुरवस्था की आशंका से उसका मन विह्वल हो जाता। कभी माता-पिता के सम्मुख आंखों में आंसू भर कह बैठती, “यदि मैं न रहूं, मैं मर जाऊं तो तुम्हारा क्या होगा?”
एक संध्या वैष्णवी द्रौपदी घाट के मंदिर में जप करने के लिए गई तो फिर नहीं लौटी। तीन दिन और रात बीत गए, वह नहीं लौटी। बस्ती-मुहल्ले में ब्राह्मण की विधवा लड़की के भाग जाने के अपवाद का कुहराम मच गया। लोग वैष्णवी के मंदिर में समाधि लगाकर अंतर्धान हो जाने की चर्चा कर मुस्कराने और कहकहे लगाने लगे। मुहल्ले के मसखरे आकर भोले पुरोहित से पूछ जाते कि वैष्णवी तीर्थ व्रत को गई है? किस तीर्थ व्रत के लिए? कोई कह जाता वैष्णवी सिद्धि प्राप्त कर अंतर्धान हो गई। कोई कह जाता वैष्णवी योगिनी बनकर आकाश में उड़ गई है। कोई कहता-वैष्णवी ने जल-समाधि ले किसी से ली है। बेटी के वियोग से अधीर भोले पुरोहित के लिए सिर उठाना, आंख मिलाना, घर से बाहर निकलना कठिन हो गया।
वैष्णवी मुहल्ले के अनेक लोगों की एकांत में कृपा-याचना को अंगूठा दिखा चुकी थी। अनेक को उनकी कुत्सित अभिलाषा का भेद खोल देने की धमकी से दुत्कार चुकी थी। ऐसे लोग तिरस्कार में दांत पीसकर और ईर्ष्या से जलकर मन मारे बैठे थे। मुहल्ले में प्रचार हो गया कि वैष्णवी एक विधर्मी के साथ भाग गई थी। अनेक प्रत्यक्ष गवाहियां भी सामने आने लगीं। वैष्णवी के प्रतिकार चाहने वाले लोग उसकी अनुपस्थिति में अपने धर्म पर आघात और मुहल्ले पर कलंक का बदला लेने के लिए हुंकार उठे। मुहल्ले के धर्म, आचार और सम्मान की रक्षा के लिए पुलिस थाने में रपट लिखाने की पुकार उठी। वैष्णवी तो उनके आक्रमणों की पकड़ से जा चुकी थी। उन लोगों की प्रतिहिंसा की चोट भोले पुरोहित और वैष्णवी की मां ही पर पड़ सकती थी। पुलिस और थाने तक पहुंचने के लिए हैसियत और दम चाहिए। मुहल्ले के धर्म, आचार और सम्मान की रक्षा के लिए उत्तेजित लोग, धर्म-रक्षा के इस कार्य में सहायता के लिए बड़े मिश्रा जी के यहां पहुंचे। बड़े मिश्रा जी ने निकम्मे भोले पुरोहित पर लड़की को आवारा बन जाने देने के लिए क्रोध प्रकट किया, अनेक अभिशाप दिए। बोले, “उसकी करनी स्वयं उसके सामने आएगी। अब उसे कौन अपने द्वार पर आने देगा? बामन पुरोहित बना फिरता है, हमारे घर की ड्योढ़ी पर आया तो साले की टांग तुड़वा देंगे। कमबख्त बूढ़ा बुढ़िया मरेंगे तो उन्हें कंधा देने वाला नहीं मिलेगा…।”
मुहल्ले के लोग, राजद्वार तक पुकार पहुंचा सकने में सहायता के लिए ग्घू लाला के यहां पहुंचे। रग्घू लाला कर्मकांड में विशेष निष्ठा रखने वाले भक्त धे, खिन्न होकर बोले, “भाग गई, भागकर कहां जाएगी?” उन्होंने आकाश की ओर संकेत किया, “वह देखने वाला है, उससे भागकर कहां जाएगी? चुड़ैल ने अपने पिछले जन्म के पापों से कंगाल, भिखमंगे के घर जन्म पाया, सुधि संभालने से पहले रंड़ापा पाया, इस पर भी चुड़ैल कुछ नहीं समझी। अब यह पाप कर रही है तो इसका भी फल पाएगी। किसी बेसवा के घर जन्म पाएगी। हरामजादी बेसवा वैष्णवी बनती थी, अच्छा हुआ हमारे मुहल्ले से कलंक गया।”
मुहल्ले के धर्म, आचार और सम्मान की रक्षा के लिए व्याकुल लोग बड़े मिश्रा जी और रग्घू लाला की उदासीनता से निराश हो मुंशी जी के यहां पहुंचे। मुंशी जी से उन्हें बहुत आशाएं थीं। मुंशी जी अपने घर में विधवा बहू और जवान लड़कियां होने के कारण मुहल्ले के आचार-व्यवहार के विषय में सतर्क रहते थे। मुंशी जी पहले भी वैष्णवी की उच्छृंखलता और पाखंड के प्रति खिन्नता और पुरोहित पुरोहिताइन की शिथिलता के प्रति ग्लानि प्रकट करते रहते थे, बोले, “हां, हां, बेईमान, आवारा छोकरी लौटकर आए तो हम उसकी हड्डियां तोड़कर रख देंगे। अरे भाई, सजा तो उसी आवारा, बेहया को मिलनी चाहिए। उस अंधे अपाहिज पुरोहित को तो हम कब से समझाते रहे। ऐसे मूर्ख लोगों के साथ और क्या होता। जानबूझकर अंधे बने थे। जवानी से व्याकुल लड़की बेपगही हो, खेत-गांव, जहां-तहां मुंह मारती फिरती थी। ये उसे वैष्णवी भक्ति माने बैठे थे। उसे कहीं बसा देने में इनकी जाति जाती थी। अब बन गई इनकी जाति और फल गया इनका धर्म! मरने दो कमबख्तों को। अब घुटनों में सिर देकर रोएगा अपनी करनी पर। सजा तो उसे भगवान् दे रहे हैं, उसे और क्या सजा दें। ”
मुंशी जी को घेरे भीड़ में से कोई बोल उठा, “सो तो हो ही रहा है। जब से लौड़िया गई है, चार दिन हो गए, बूढ़ा, निर्जल, निराहार, ज्वर में खाट पर पड़ा है। बुढ़िया भी रो रही है। ”
” मुंशी ने सुना तो उनके होंठ खुले रह गए और आंखें नम हो गईं लेकिन धमकाकर बोले, “देखते हैं चलकर। किसे डरा रहा है निराहार से, पोंगा बामन!साले को मुहल्ले से घसीटकर बाहर फेंक देंगे।” मुंशी जी भीड़ के आगे-आगे भोले पुरोहित के घर की ओर चल दिए।
मुंशी जी ने भोले पुरोहित के द्वार पर पहुंचकर अपने साथ आई भीड़ को बाहर ही रोक दिया। कोठरी का द्वार नीचा था, गर्दन झुकाकर प्रविष्ट हुए। पुरोहित की खटिया पर बैठकर धीमे स्वर में बोले, “यह क्या, कैसे पड़े हो। पंडित, किस बात के लिए दुखी होते हो! बिटिया तुम कहते थे, वैष्णवी थी। वह वैष्णव धर्म पूरा करने के लिए, तीरथ-बन में जोग रमाने चली गई तो दुःख किस बात का! तुम भी क्या पोंगे हो, लुच्चे-लंगारे, लोक-निंदकों की बातों पर जाते हो। जानते तो, सच्चे वैष्णवों, साधु-संतों का ठिकाना घर-गृहस्थ में नहीं, तीरथ-तपोवन में ही होता है। अरे, तुम खुद ही कहते थे, बिटिया सिद्ध हो गई थी तो फिर उसे घर-बार का मोह क्या होता! हम-तुम उसे क्या समझ पाते! जिसने भगवान् से लौ लगा ली, उसे संसार से क्या! तुम खुद कहते थे भक्तिन थी, जोग रमाने चली गई। भैया, ऐसे भक्ति जिस-तिस के वश की थोड़े ही हो सकती है। अरे, तुम तो पुण्यात्मा हो। ऐसी भक्तिन संतान पाकर तुम्हारा जन्म सफल हो गया। तुम्हारे पुरखे तर गए। लोगों का क्या है, किसी का जस-पुण्य बढ़ते थोड़े ही देख सकते हैं! ”
भोले पुरोहित, मुंशी जी से वैष्णवी बिटिया के सिद्ध और भक्ति होने के सम्मान की बात सुनकर, बांह का सहारा ले खटिया पर से उठ बैठे। मुंशी जी के चेहरे की ओर सजल आंखें उठाकर बोले, “ठीक कहते हो मुंशी जी, आप ही ठीक कहते हो। बिटिया घर से चली गई, मान लो उसने बुरा किया पर थी सच्ची वैष्णवी भक्तिन । देखो मुंशी जी, वह अनागत जानती थी। चार दिन पहले ही उसने उदास हो कह दिया था, ‘तीन दिन बाद घर का एक आदमी नहीं रहेगा।’ अनागत जानती थी न ! दूसरा तो अनागत नहीं जान सकता।” भोले पुरोहित की आंखों में आंसू और चेहरे पर संतोष की आभा चमक उठी।
मुंशी जी पुरोहित की पीठ पर थापी देकर हंस दिए, “हां, हां और क्या!” उन्होंने पुरोहित की बांह पकड़कर खाट से उठने के लिए सहारा दिया और बोले, “जाओ, नहाओ-धोओ, खाओ-पिओ। सब ‘उस’ की इच्छा से होता है। ‘उस’ का भरोसा करो।”