“फ्रिन्स ” एक अद्भुत व भयानक रचना ।An amazing and terrible creation.

 आपने कभी बांग्ला साहित्य पढ़ा हैं? भई मैंने तो खुब पढ़ा है शरतचंद्र चट्टोपाध्याय से लेकर सत्यजित राय तक। दोनों ही बिलकुल अगल किस्म के लेखक थे दोनों की लेखन शैली भी अलग थी शरतचन्द्र जी जहां सामाजिक मुद्दों से ज्यादा जुड़ाव रखते थें वहीं सत्यजित जी की कहानियाँ काल्पनिक, अलौकिक व अविश्वस्नीय होती थी। हालांकि ये खूबी पूरे बंग्ला साहित्य की ही है । बांग्ला साहित्य में आपको बहुत सारी अलौकिक, भूत-प्रेत आदि की कहानियाँ मिल जाएँगी। उन्हीं कहानियों में से आज मैं महान निर्देशक/लेखक/निर्माता सत्यजित राय जी की एक कहानी फ्रिंस लेकर आयी हूँ तो आइये शुरू करते है एक डरावना सफर।

जयंत की ओर कुछ क्षणों तक ताकने के बाद मैं उससे सवाल किये बिना नहीं रह सका , ‘आज तू बड़ा मरियल जैसा दिख रहा है?तबियत खराब है क्या ? जयंत अपने अनमनेपन को दूर हटाकर बच्चे की तरह हँस दिया और बोला , न ,तबियत खराब नहीं है बल्कि ताजगी ही महसूस कर रहा हूँ।सचमुच जगह अच्छी है ना ? तेरी तो जानी-पहचानी जगह है । पहले नहीं पता था कि एक जगह इतनी अच्छी है? भूल चुका था। जयंत ने एक लम्बी साँस ली, ‘इतने दिनों के बाद धीरे-धीरे सब कुछ याद आ रहा है । बंगला पहले के जैसा ही है ,कमरों में भी कोई खास परिवर्तन नहीं किया गया है ,फर्नीचर भी पुराने ज़माने वाला ही है ।जैसे बेंत की यह टेबल और कुर्सियां ।

बेयरा ट्रे में चाय और बिस्किट ले आया।कुल मिलाकर अभी चार ही बजे है और धूप ढलने लगी है चायदानी से मैंने चाय डालते-डालते हुए कहा “कितने दिन बाद यहाँ आना हुआ?” जयंत ने कहा ‘इकतीस साल के बाद।तब मैं 6साल का था।’  

हमलोग जहाँ बैठे हैं वह है बूँदी शहर के सर्किट हाउस का बगीचा। आज सवेरे ही यहाँ पहुंचे है।जयंत मेरे बचपन का मित्र है । एक ही स्कूल और एक् ही कॉलेज में सहपाठी रह चुके हैं।आजकल वह एक अखबार के सम्पादकीय विभाग में नौकरी करता है और मैं एक स्कूल में शिक्षक का काम।नौकरी, जीवन में अलगाव के बाद भी हमारी दोस्ती ज्यों की त्यों बनी है।हम लोगों ने बहुत पहले ही राजस्थान भ्रमण की योजना बनाई थी।दोनों को एक साथ छुट्टी मिलने में असुविधा हो रही थी । आज इतने दिनों बाद यह संभव हुआ है । साधारण इंसान राजस्थान आतें हैं तो पहले जयपुर ,चित्तौड़ और उदयपुर ही देखते हैं मगर जयंत पहले से ही बूँदी जाने का दबाव बना रहा था मैंने भी आपत्ति नहीं की क्योंकि बचपन में मैंने रवीन्द्र नाथ टैगोर की बूँदी का किला कविता पढ़ी थी और उस किले को इतने दिनों बाद देखने का मौका मिला । ज्यादातर आदमी बूँदी नहीं आतें, लेकिन इसके माने ये नहीं है कि यहाँ देखने लायक कुछ नहीं है। ऐतिहासिक घटना की दृष्टि विचार किया जाए तो जोधपुर , चितौड़ का अधिक महत्त्व है लेकिन सौंदर्य के लिहाज से बूँदी किसी से कम नहीं है। बचपन में जयंत एक बार बूँदी आ चुका है इसीलिए उन पुरानी यादों को नए सिरे से मिलान के लिए उसके मन में इच्छा जोर मार रही थी। जयंत के पिता अमियदास गुप्त पुरातत्व विभाग में काम करतें थें ,इसीलिए बीच-बीच में उन्हें ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण करना पड़ता था। इसी सिलसिले में जयंत भी बूँदी आया था।

सर्किट हाउस वास्तव में बहुत खूबसूरत है ।अंग्रेजों के ज़माने का है। सौ साल से कम पुराना ना होगा।

हम सुबह पहुँचने के बाद शहर का एक भ्रमण लगा चुके है । पहाड़ पर बूँदी का विख्यात किला है जिसे आज बाहर से देखा है कल हम अंदर जाकर देखेंगे। यहाँ आने पर मैंने एक बात नोटिस की है की जयंत आमतौर पर जितनी बातें करता है यहाँ उससे कम बात कर रहा है शायद बहुत पुरानी यादें उसके मन में लौट कर आ रहीं हैं।बचपन के किसी पहचाने स्थान में आने से मन उदास हो जाता है। और जयंत आम लोगों से अधिक भावुक है ।यह बात सभी को मालूम है।

हाथ की प्याली जयंत ने नीचे रखकर कहा , मालूम हैं शंकर !शुरू में जब मैं यहाँ आया था तो इन कुर्सियों पर मैं बाबू साहब की तरह पाँव मोडकर बैठा करता था । अब देख रहा हूँ कुरसियां लम्बाई- चौड़ाई में में बड़ी नहीं है।सामने जो drowing room है इससे दोगुना प्रतीत होता था। चाय पीना खत्म करके बागीचे में चहलकदमी करते-करते जयंत एकाऐक ठीठक कर बोला , देवदारु ! ….देवदारु का एक पेड़ उधर होना चाहिए था। यह कहकर वह तेजी से पेड़-पौधो के बीच से होता हुआ अहाते के कोने की ओर बढ़ गया। अचानक जयंत को देवदारु के पेड़ की बात क्यों याद आ गई? कुछ सेकंड के बाद उसका उल्लासित स्वर सुनाई दिया- है..इट्स हिअर । पेड़ की बात तुझे अचानक क्यों याद आ गई। जयंत ने कुछ् देर पेड़ को देखा उसके बाद आहिस्ता से सर हिलाकर बोला,’ वह बात अब याद नही आ रही। किसी वजह से मैं उस पेड़ के पास गया था और वहाँ जाकर कुछ किया था। एक अंग्रेज……. अंग्रेज? नहीं, याद नही आ रहा ठीक से कुछ।

खाना खाने के बाद जयंत जब सोफे पर बैठा तो उसे धीरे धीरे पुरानी बातें याद आने लगी। उसके पिता जी किस सोफे पर बैठ कर चुरुट पिया करते थें, माँ कहाँ बैठकर स्वेटर बुनती थी किस टेबल पर पत्रिकाएं पड़ी रहती थी।….. अचानक से उसे पुतली की भी बात याद आ गई। पुतली का मतलब लड़कियों की डॉल नहीं। जयंत के मामा ने उसे स्विट्जरलैंड से उसे एक दस-बारह इन्च लम्बी पोशाक पहने एक् बूढ़े की मूर्ति उसे लाकर दी थी।देखने में वह एक छोटे जीवित आदमी की तरह लगती थी। भीतर कल कब्ज कुछ नहीं था मगर हाथ-पांव ,कमर सब ऐसे बने थे की इच्छानुसार उन्हें घुमाया-फिराया जा सके।चेहरे पर हमेशा एक हंसी तैरती रहती थी। सर पर एक पहाड़ी स्विस टोपी थी जिसपर पंख खुसे थे। इसके अलावा पोशाक में कहीं कोई त्रुटि नहीं थी -बेल्ट ,बटन, पाकेट,मोजा यहाँ तक कि जूते के बकल्स भी त्रुटि हीन थे। 



पहली बार जब जयंत बूँदी आया था तो उसके मामा कुछ वक्त पूर्व ही विलायत से लौटकर आए थें और उन्होंने उसे वो पुतली दी थी । स्विट्जरलैंड के किसी गाँव में उन्होने किसी बूढ़े से खरीदी थी । बूढ़े ने मजाक में कहाँ था कि इसका नाम फ्रिन्स है किसी दूसरे नाम से पुकारोगे तो जवाब नहीं मिलेगा। जयंत ने कहा,’ बचपन में मुझे कितने ही खिलौने मिले थे मगर मामा ने जब फ्रिन्स दिया तो मैं अपने सारे खिलोने भूल बैठा। रात-दिन उसी को लेकर पड़ा रहता यहाँ तक कि एक ऐसा वक्त आया कि मैं उससे घंटो बातें करने लगा।बात बेशक एक तरफ़ा रहती थी मगर फ्रिन्स के चेहरे पर एक ऐसी हंसी और आँखों में एक ऐसा भाव रहता था कि मुझे लगता वो मेरी बातें समझ लेता है । कभी-कभी मुझे ऐसा लगता कि मैं अगर बांग्ला कि बजाय जर्मन में बात कर पाता तो बातचीत एकतरफा ना होकर दोतरफा होती।अभी सोचता हूँ तो लगता हैं वो सब बचपना था मगर उन दिनों ये बात मेरे लिए यथार्थ जैसी थी। माँ और बाबू जी मना करते थें लेकिन मैं किसी की बातों पर कान ही नहीं धरता था। तब मैंने स्कूल जाना शुरू ही नहीं किया था तो फ्रिन्स को वक्त ना दे पाने का सवाल ही नहीं बनता था।

इतना कहकर जयंत चुप हो गया। घड़ी की और देखने पर पता चला कि 9:30 बज चुके हैं। हम सर्किट हाउस में लैंप जलाकर बैठे थे । 

मैंने पूछा , पुतली कहाँ गई

 पुतली को बूँदी लाया था ….यही टूट गई। 

                               To be continued………

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