जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘रूप की छाया’

 काशी के घाटों की सौध-श्रेणी जाह्नवी के पश्चिम तट पर धवल शैल माला-सी खड़ी है। उनके पीछे दिवाकर छुप चुके। सीढ़ियों पर विभिन्न वेशभूषा वाले भारत के प्रत्येक प्रांत के लोग टल रहे हैं। कीर्तन, कथा और कोलाहल से जाह्नवी-तट पर चहल-पहल है। 

एक युवती भीड़ से अलग एकांत में ऊँची सीढ़ी पर बैठी हुई भिखारी का गीत सुन रही है, युवती कानों से गीत सुन रही है, आँखों के सामने का दृश्य देख रही है। हृदय शून्य था, तारामंडल के विराट् गगन के समान शून्य और उदास सामने गंगा के उस पार चमकीली रेत बिछी थी। उसके बाद वृक्षों की हरियाली के ऊपर नीला आकाश, जिसमें पूर्णिमा का चन्द्र, फीके बादल के गोल टुकड़े के सदृश, अभी दिन रहते ही गंगा के ऊपर दिखाई दे रहा है। जैसे मंदाकिनी में जल-विहार करने वाले किसी देव-द्वंद्व की नौका का गोल पाल। दृश्य के स्वच्छ पट में काले-काले बिन्दु दौड़ते हुए निकल गए। युवती ने देखा, वह किसी उच्च मंदिर में से उड़े कपोतों का एक झुंड था। दृष्टि फिर कर वहाँ गई, जहाँ टूटी काठ की चौकी पर विवर्ण-मुख, लम्बे असंयत बाल और फटा कोट पहने एक युवक कोई पुस्तक पढ़ने में निमग्न था। 

युवती का हृदय फड़कने लगा। वह उतरकर एक बार युवक के पास तक आई, फिर लौट गई। सीढ़ियों के ऊपर चढ़ते-चढ़ते उसकी एक प्रौढ़ा संगिनी मिल गई। उससे बड़ी घबराहट में युवती ने कुछ कहा और स्वयं वहाँ से चली गई। प्रौढ़ा ने आकर युवक के एकांत अध्ययन में बाधा दी और पूछा-‘तुम विद्यार्थी हो?’ 

‘हाँ, मैं हिन्दू-स्कूल में पढ़ता हूँ।’ ‘क्या तुम्हारे घर के लोग यहीं हैं?’ ‘नहीं, मैं एक विदेशी, निस्सहाय विद्यार्थी हूँ।’ ‘तब तुम्हें सहायता की आवश्यकता है।’ 

‘यदि मिल जाए, मुझे रहने के स्थान का बड़ा कष्ट है।’ ‘हम लोग दो-तीन स्त्रियां हैं। कोई अड़चन न हो, तो हम लोगों के साथ रह सकते हो।’ 

“बड़ी प्रसन्नता से, आप लोगों का कोई छोटा-मोटा काम भी कर दिया करूंगा।’ 

‘अभी चल सकते हो?” 

‘कुछ पुस्तकें और सामान हैं, उन्हें लेता आऊं।’ ‘ले आओ, मैं बैठी हूँ।’ युवक चला गया। 

गंगा-तट पर एक कमरे में उज्ज्वल प्रकाश फैल रहा था। युवक विद्यार्थी बैठा हुआ ब्यालू कर रहा था। अब वह कालेज के छात्रों में हैं। उसका रहन-सहन बदल गया है। वह एक सुरुचि-संपन्न युवक हो गया है। अभाव उससे दूर हो गए थे। 

प्रौढ़ा पसरती हुई बोली- ‘क्यों शैलनाथ! तुम्हें अपनी चाची का स्मरण होता है?’ 

‘नहीं तो, मेरे कोई चाची नहीं है।’ 

दूर बैठी हुई युवती ने कहा- ‘जो अपनी स्मृति के साथ विश्वासघात करता है, उसे कौन स्मरण दिला सकता है।’

 युवक ने हंसकर इस व्यंग्य को उड़ा दिया। चुपचाप घड़ी का टिक-टिक ने शब्द सुनता और मुंह चलाता जा रहा था। मन में मनोविज्ञान का पाठ सोचता जाता था- ‘मन क्यों एक बार एक ही विषय का विचार कर सकता है?’ 

प्रौढ़ा चली गई। युवक हाथ-मुंह धो चुका था। सरला ने पान बनाकर दिया और कहा- ‘क्या एक बात मैं भी पूछ सकती हूँ?’ 

‘उत्तर देने में ही छात्रों का समय बीतता है, पूछिए।’ 

‘कभी तुम्हें रामगाँव का स्मरण होता है? यमुना की लाल लहरियों में से निकलता हुआ अरुण और उसके श्यामल तट का प्रभात स्मरण होता है? स्मरण होता है, एक दिन हम लोग कार्तिक पूर्णिमा स्नान को गए थे, मैं बालिका थी, तुमने मुझे फिसलते देखकर हाथ पकड़ लिया था। इस पर साथ की और स्त्रियां हंस पड़ी थीं, तुम लज्जित हो गए थे।’ 

पच्चीस वर्ष के बाद युवक छात्र ने अपने जीवन भर में जैसे आज ही एक आश्चर्य की बात सुनी हो, वह बोल उठा-‘नहीं तो ।’ 

कई दिन बीत गए। 

गंगा के स्थिर जल में पैर डाले हुए, नीचे की सीढ़ियों पर सरला बैठी हुई थी। कारुकार्य-खचित-कंचुकी के ऊपर कंधे के पास सिकुड़ी हुई साड़ी आधा खुला हुआ सिर, बंकिम ग्रीवा और मस्तक में कुंकुम बिन्दु-महीन चादर में सब अलग-अलग दिखाई दे रहे थे। मोटी पलकों वाली बड़ी-बड़ी आंखें गंगा के हृदय से मछलियों को ढूंढ निकालना चाहती थीं। कभी-कभी वह बीच धारा में बहती हुई डोंगी को देखने लगती। खेने वाला जिधर जा रहा है उधर देखता ही नहीं। उल्टे बैठकर डांड़ चला रहा है। कहाँ जाना है, इसकी उसे चिंता नहीं। सहसा शैलनाथ ने आकर पूछा’मुझे क्यों बुलाया है?’ ‘बैठ जाओ।’ 

शैलनाथ पास ही बैठ गया। सरला ने कहा-‘अब तुम नहीं छिप सकते। तुम्हीं मेरे पति हो, तुम्हीं से मेरा बाल-विवाह हुआ था, एक दिन चाची के बिगड़ने पर सहसा घर से निकलकर कहीं चले गए, फिर न लौटे। हम लोग आज-कल अनेक तीर्थों में तुम्हें खोजती हुई भटक रही हैं। तुम्हीं मेरे देवता हो; तुम्हीं मेरे सर्वस्व हो कह दो-हाँ!’ 

सरला जैसे उन्मादिनी हो गई है। यौवन की उत्कंठा उसके बदन पर बिखर रही थी। प्रत्येक में अंगड़ाई, शरीर में मरोर, शब्दों में वेदना का संचार था, शैलनाथ ने देखा, कुमुदों से प्रफुल्लित शरत्काल के ताल-से भरा यौवन। सर्वस्व लुटाकर चरणों में लोट जाने के योग्य सौंदर्य प्रतिमा। मन को मचला देने वाला विभ्रम, धैर्य को हिलाने वाली लावण्यलीला वक्षस्थल में हृदय जैसे फैलने लगा। वह ‘हाँ’ कहने ही को था परंतु सहसा उसके मुंह से निकल पड़ा-‘यह सब तुम्हारा भ्रम है। भद्रे! मुझे हृदय के साथ ही मस्तिष्क भी है।’ 

‘गंगाजल छूकर बोल रहे हो! फिर से सच कहो!’ 

युवक ने देखा, गोधूलि-मलिना-जाह्नवी के जल में सरला के उज्ज्वल रूप की छाया चन्द्रिका के समान पड़ रही है। गंगा का उतना अंश मुकुट-सदृश धवल था। उसी में अपना मुख देखते हुए शैलनाथ ने कहा’भ्रम है सुन्दरी, तुम्हें पाप होगा।’ 

‘हाँ, परन्तु वह पाप, पुण्य बनने के लिए उत्सुक है।’ 

‘मैं जाता हूँ। सरला, तुम्हें रूप की छाया ने भ्रांत कर दिया है। अभागों को सुख भी दुख ही देता है। मुझे और कहीं आश्रय खोजना पड़ेगा।’ शैलनाथ उठा और चला गया। 

विमूढ़ सरला कुछ न बोल सकी। वह क्षोभ और लज्जा से गड़ी जाने लगी। क्रमश: घनीभूत रात में सरला के रूप की छाया भी विलीन हो गई।

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