1983 का महाभोज आज कितना प्रासंगिक!

 दुर्निवार सम्मोहन भरी उस खतरनाक लपकती
अग्नि-लीक के लिए जो बिसू और बिन्दा तक ही नहीं रुकी रहती। – प्राक्कथन (महाभोज)
मन्नू भंडारी 
मैं मानती हूँ कि जिन्दगी में कुछ चीजें एक बार तो करनी ही चाहिए-
प्यार एक बार तो करना ही चाहिए , तन्हा सफर एक बार तो करना ही चाहिए,अपने सबसे बड़े
दुश्मन को एक बार माफ़ तो करना ही चाहिए, सबसे प्यारे दोस्त से झगड़ा एक बार तो करना
ही चाहिए, और भारत के हर नागरिक को महाभोज एक बार तो पढ़ना ही चाहिए। 
हो सकता है कि
ये ब्लॉग पढ़ने वाले पाठकों में कुछ लोग इसे पढ़ चुके हो तो वो समझ सकते है कि आज के
समय में महाभोज पढ़ना कितना जरुरी है। और ये ब्लॉग पढ़ने के बाद जो महाभोज पढेंगें वो
खुद समझ जाएँगे कि ये पढ़ना वाकई जिन्दगी के एक हिस्से से मुलाकात करने के लिए कितना
जरुरी था। 

1983 में छपे उपन्यास का 2022 में क्या काम? 
साहित्य के पितृसत्तात्मक
दौर में एक महिला साहित्यकार मन्नू भंडारी के लिखे सदियों तक प्रासंगिक रहने वाले
इस उपन्यास ने जहां पुरुष साहित्यकारों के अभिमान पर चोट पहुँचाई थी,वहीं दलित समाज
के लिए मरहम का काम किया था, और विचारशील लोगों को जिंदा रहने का मतलब सिखा गया था।
बिन्दा की आँखों में फिर कुछ दहकने लगा और कनपटी की नसें फड़कने लगी ‘,क्योंकि वो
जिंदा था !जिंदा रहने का मतलब समझते हैं न आप?लोग भूल गए है जिंदा रहने का मतलब ,
इसीलिए पूछ रहा हूँ।’
राजनीति का दोगला चेहरा दिखाता यह उपन्यास आज भी वहीं अर्थ
वहीं कटाक्ष और वहीं धमक लिए राजनीति के सर पर डंका बजाती हैं ।लेकिन आज इसका शोर
सुनने के लिए इसे पढ़ना भी जरुरी है। इस उपन्यास के एक महत्वपूर्ण किरदार या यूँ
कहूँ कि राजनीति के चाणक्य दा साहब का कथन है “जमाना बदल रहा है जोरावर,ज़माने के
साथ बदलना सीखो!जो चीजें आज से तीस साल पहले होनी चाहिए थीं वे आज भी पूरी तरह नहीं
हो रहीं। दुर्भाग्य है इस देश का यह।”
ये कथन हर बात पर लागू होता है लेकिन इस
उपन्यास पर नहीं क्योंकि जब तक इस देश में दोगली, दूश्चरित,स्वार्थपरक और गलाकाटू
राजनीति है तब तक इस उपन्यास की प्रासंगिकता बनी ही रहेगी।
 

ये लोगों के जहन से तभी
विस्मृत हो सकती है जब इस देश की राजनीति में सुधार हो , जो भी मुश्किल ही नहीं
असम्भव है। इस देश की राजनीति धर्म-जाति, ऊंच-नीच के भेदभाव से ऊपर नहीं उठेगी
बिसेसर और बिन्दा हर बुद्धिजीवी के मस्तिष्क में जीतें रहेंगे। धर्म के नाम पे
राजनीति हो, अखबारों की खरीद हो ,बेबसों की, दलितों की,अल्पसंखयको की चिता पर
राजनैतिक मंसूबे बाँधने हो या पुलिसिया तन्त्र को घूसखोर बनाने की हो, ये सब आज के
ही चलचित्र लगतें हैं।
पिछले 8 सालों से राजनीति का ऊंट जिस करवट बैठा है उसके नीचे
धर्म के नाम पर क़त्ल की गई कइयों लाशें दबी है और ये ऊंट जिस दिन भी उठेगा
विधवा,लुटी हुई औरतें , बिना बाप के लावारिश बच्चे, कतरा-कतरा सांस को तड़पते
बुजुर्ग और अंतिम दिन गिनती मानवता दिखाई देगी।
लेकिन जब तक धर्म का भूत लोगों के
सर पर सवार रहेगा तब तक इंसानियत की आत्मा बार-बार छलनी होती रहेगी, कोई दलितों की
बस्ती जलाई जाएगी, कोई बिसेसर मारा जाएगा कोई बिगड़ा पर निर्दोष बिन्दा जेल में
सड़ेगा ,कोई रुक्मा बदनाम की जाएगी, कोई मिस्टर सक्सेना अपनी ईमानदारी की कीमत
नौकरी गवां कर चुकाएंगे। “इन हरिजनों के बाप-दादे हमारे बाप-दादों के सामने सर
झुकाकर रहतें थें। झुके-झुके पीठ कमान की तरह टेढी हो जाती थी।और ये ससुरे सीना तान
कर आँख मे आँख गाड़़ाकर बात करतें हैं बर्दाश्त नहीं होता यह सब हमसे।”
कहने वाले
जोरावर जैसे लोग इसी तरह जिंदा लोगों को जलाते रहेंगे और सुकुल बाबू जैसे लोग उनकी
लाश पर रोटियों सेकेगे। खैर दा साहब की तो क्या ही कहे वो अपने आप में एकलौते है।
वैसे दा साहब का किरदार किस “राजनैतिक चाणक्य” से मिलता है ये भी छिपेगा नहीं आपसे। 

अगर आपको नग्न राजनीति का काला रूप देखना हो तो महाभोज पढ़िए, अगर आपको राजनीति
सीखनी हो तो महाभोज पढ़िए, अगर आपको आज की हकीकत जाननी हो तो महाभोज पढ़िए, अगर आपको
दोस्ती सीखनी हो तो महाभोज पढ़िए, एक महिला कैसे राजनैतिक परिदृश्यों को हूबहू बुन
सकती है ये जानना हो तो महाभोज पढ़िए, महाभोज ( मृतक के शोक में खिलाया जाने वाला
भोजन) किसे कहते है ये जानना हो तो महाभोज पढ़िए।सारी बात तो कुलमिलाकर ये है कि आज
के समय में कैसे जिया जाना चाहिए ये जानना हो तो एक बार जरूर महाभोज पढ़िए।

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